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अद्धभुत कथा :वह फल है अथवा सूर्य ? चिरंजीवी हनुमान जी ने खोला राज


अद्धभुत कथा :

वह फल है अथवा सूर्य ? चिरंजीवी हनुमान जी ने खोला राज

यजमान बसंत का परिचय देते हुए बाबा मातंग ने चरण पूजा आरम्भ की, “हे प्रभु हनुमान ! जब 41 साल पहले आप आये थे बसंत एक बच्चा था | उस समय हमारा डेरा सप्त कन्या पर्वत श्रंखला के एक पर्वत पर था | वही पर पिछली बार की चरण पूजा हुई थी | यहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मणों , जिनमे से मै भी एक हूँ , ने आपसे परम ज्ञान की प्राप्ति वही पर की थी | हमने वह पर्वत श्रंखला क्यों छोड़ी , यह एक बहुत ही पीड़ादायक घटना है | उस घटना को फिर से याद करना मात्र भी मेरे लिए पीड़ादायक है किन्तु उस घटना का वर्णन किये बिना बसंत का परिचय पूर्ण नहीं होगा |”

बाबा मातंग ने एक गहरी सांस ली और बताने लगे - “हे हनुमान जी , 41 साल पहले जब आपने हमसे विदा ली थी उसके बाद कुछ ही महीने बीते थे कि बाबा मातंग भी विष्णु लोक प्रस्थान कर गए | उसके बाद मैं बाबा मातंग बना | बाबा पद के साथ जुडी हुई जिम्मेदारियों को निभाना कठिन नहीं था क्योंकि उस समय सभी वयस्क मातंग आपसे सीधे परम ज्ञान प्राप्त किये हुए थे | उन सबको पता था कि तन -मन - विवेक की सम्पूर्ण पवित्रता के साथ कैसे जीवन जीया जाता है | बाबा बनने के बाद मेरी पहली परीक्षा लेकिन ज्यादा दूर नहीं थी | एक शाम रात्रि के भोजन के पश्चात् मैंने घाटी में एक अजीब सा सन्नाटा अनुभव किया | भोजन के बाद मै अपनी कुटिया में गया और हस्तिकर्ण ले आया |

सेतु टिपण्णी : हस्तीकरण मातांगो का एक शंख के आकार का ऐसा यन्त्र होता है जो अति धीमी आवाज भी पकड़ लेता है | इतनी धीमी आवाज जिसे कि मानव के कान नहीं सुन पाते |

“मैंने असुरों की फुसफुसाहट को सुना | दर्जनों असुरों का एक झुण्ड पर्वत के शिखर की ओर इकठ्ठा था | हस्तिकर्ण की मदद से उनकी फुसफुसाहट को नीचे घाटी में आराम से सुना जा सकता था | मैंने उनको कहते सुना - “कितना सुनहरा अवसर है | ... कितने समय बाद ... कितना सुनहरा अवसर ...”

“बुराई को अनुभव करने का अवसर ही तो असुर हमेशा ढूंढते रहते है | यह तो निश्चित था कि पर्वत पर कोई बुरी घटना होने वाली थी | कुछ ही मिनट बाद यह भी पता चल गया कि वे किस अवसर के बारे में बातें कर रहे थे | हमने एक विमान को पर्वत में टकराते देखा | विमान में सफ़र कर रही दर्जनों आत्माए अपनी देहो से बाहर हो गई और विमान आग के गोले में बदल गया |

[टिपण्णी : यहाँ पर जिस विमान दुर्घटना का जिक्र हुआ है यह संभवतः मर्तिनेयर फ्लाईट संख्या 138 का जिक्र है जो 4 दिसम्बर 1974 को सप्त कन्या पर्वत पर दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी | यह इंडोनेशिया से कोलोम्बो होते हुए मक्का जा रही एक चार्टर्ड फ्लाईट थी | सेतु द्वारा श्री लंका के अधिकारीयों के साथ पुष्टि किये गए दस्तावेजों के अनुसार इस दुर्घटना में 182 हज यात्री और 9 चालक दल के सदस्य मारे गए थे |]
“घाटी का सन्नाटा अब जंगल के पक्षियों और पशुओं की चीखों में बदल गया था | मैंने बाबा मातंग के रूप में अपना पहला महत्वपूर्ण निर्णय लिया | मैंने सभी मातांगो को वह पर्वत छोड़कर सप्तकन्या श्रंखला के सबसे दूर स्थित पर्वत पर स्थानातरित होने का निर्देश दिया क्योंकि मुझे पता था कि पौह फटते ही वहां “बाहर वाले लोग” और “राजा के सैनिक” दुर्घटना का विश्लेषण करने के लिए आ जायेंगे | (राजा के सैनिक का अर्थ है श्री लंका के सुरक्षा बल )

“उस समय बसंत के पिता के अलावा सभी मातंग उपस्थित थे | वह अपने पूर्वजों से बात करने के लिए पर्वत शिखर की ओर गया हुआ था | जब घबराए हुए पक्षी कुछ समय बाद अपने अपने घोंसलों में बैठ गए तब मैंने पक्षियों के द्वारा बसंत को सन्देश भेजा | विमान दुर्घटना उसके बहुत समीप हुई थी किन्तु वह सुरक्षित था | मैंने उसको तुरंत नीचे घाटी में उतर आने को कहा |

“हे हनुमान जी , आपको तो पता है कि हम मातंग लोग केवल एक ही भौतिक खजाना अपने पास रखते हैं --- उन रत्नों का खजाना जो मातंगों के हर परिवार को पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिला है| ये रत्न हमें अपने पूर्वजों से संपर्क साधने में सहायक होते हैं | जब भी कोई धर्मसंकट आता है तो हम अपने पूर्वजों से संपर्क साधते हैं जो हम मानते हैं कि वे अब भी समय के नकारात्मक निर्देशांकों (भूतकाल) में जीवित हैं |

“पर्वत से जल्दी जल्दी उतरने के प्रयास में बसंत के पिता अपने रत्न खो बैठे | अँधेरा घना था और बसंत के पिता के पास जो मशाल थी उसका प्रकाश इतना नहीं था कि रत्न ढूंढे जा सकते | लम्बे प्रयास के पश्चात् भी जब उसे रत्न नहीं मिले तो मैंने उसे वहां चट्टानों पर निशान लगाकर नीचे उतर आने को कहा ताकि हम रत्न बाद में ढूंढ सकें |

“हमने रातो रात वह स्थान खाली कर दिया और सप्त कन्या श्रंखला के सबसे दूर स्थित पर्वत पर चले आये | कुछ महीने बाद जब हम दोबारा उस स्थान पर लौटे तो हमने देखा कि “बाहरी लोगो” और सैनिकों ने हमारे डेरे को तहस नहस कर दिया था | हम उस स्थान पर गए जहाँ पर बसंत के परिवार के रत्न खो गए थे | कई दिनों तक हमने उन रत्नों को ढूँढने की कोशिश की लेकिन असफल रहे | मुझे आभास हुआ कि किसी बाहरी मनुष्य ने वे रत्न वहां से चोरी कर लिए थे | उस बाहरी मनुष्य के लिए वे रत्न केवल मूल्यवान पत्थर भर थे लेकिन बसंत के परिवार के लिए तो वे रत्न उनके पूर्वजों से संपर्क साधने का एकमात्र मार्ग थे |

“कुछ ही समय में मुझे आभास हो गया कि रत्नों के गुम होने के साथ साथ कुछ ओर भी गुम होता चला जा रहा था | मातंग उन रत्नों के खो जाने की वजह से अपने मोक्ष का मार्ग भी भटकते जा रहे थे | जब भी वे अपने दैनिक कार्य के लिए इधर उधर जाते वे उन रत्नों की खोज करते थे |दिन भर दिन उनका स्वभाव उन बाहरी मानवों जैसा होता जा रहा था जो हमेशा भौतिक वस्तुओं के पीछे लगे रहते हैं | फिर मैंने निर्णय लिया कि सभी मातंग परिवार अपने अपने रत्न नदी में फेंक देंगे ताकि वे बसंत मातंग के परिवार के समकक्ष हो सकें | इस निर्णय को लागू करने के लिए आपकी आज्ञा लेने के लिए मैंने एक पूजा का आयोजन किया | लेकिन आपने आज्ञा नहीं दी | आपने परामर्श दिया कि मैं बसंत के परिवार को गोद ले लूँ ताकि मेरे रत्न वे भी प्रयोग कर सकें | मैंने वैसा ही किया | उन खोये हुए रत्नों की बुरी यादों को पीछे छोड़ने के लिए सभी मातंगों ने सप्त कन्या पर्वत श्रंखला का त्याग कर दिया और यहाँ आ गए |

“हे हनुमान जी , यह चरण पूजा के पहले यजमान बसंत का परिचय मैंने दिया | उसके पिता अपने पूर्वजों की उस धरोहर को खोने के सदमे को कभी भुला न सके | उसकी देह बूढी होकर प्राणहीन हो गई लेकिन उसकी आत्मा विष्णुलोक में नहीं गई | उसकी आत्मा अब भी यहाँ है , देह हीन , केवल एक इच्छा लिए हुए -- अपने परिवार को वे रत्न वापिस लेते देखना | एक आत्मा की केवल एक इच्छा हो और उसके कर्मों का खाता बिलकुल खाली हो तो ऐसी आत्मा इस कलियुग में नई देह नहीं धारण कर सकती | जैसे ही इस आत्मा की एकमात्र इच्छा पूर्ण हो जायेगी , यह विष्णुलोक चली जायेगी | लेकिन मेरी चिंता बसंत को लेकर है | बचपन में इसके परिवार के ऊपर गुजरी इस विपदा के कारण बहुत सारे असुरों और सुरों ने इसकी आत्मा को प्रभावित किया है जिसके चलते इसके कर्म खाते में बहुत सारे कर्म जमा हो गए हैं | इसीलिए मैंने इसे चरण पूजा के पहले घंटे का यजमान बनाया है | अगर जरुरत पड़े तो इसे हर रोज चरण पूजा का अवसर प्रदान किया जाए ताकि इसके कर्मों का परिष्करण हो सके |”
जैसे ही बाबा मातंग ने बसंत का परिचय समाप्त किया , होतार उर्वा खड़ा हो गया | उसने पूछा - “हे हनुमान जी , मैं यह जानने को उत्सुक हूँ को वे रत्न इस समय कहाँ हैं ? क्या वे उसी मनुष्य के पास हैं जिसने उनको सप्त कन्या पर्वत से चोरी किया था ? क्या बसंत के परिवार को वे रत्न वापिस मिल पायेंगे ? अगर नहीं तो बसंत के पिता की आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी ?” हनुमान जी मुस्कुराये | यह मुस्कराहट इस बात का इशारा थी कि प्रश्न का उतर सीधा नहीं होने वाला है | हनुमान जी ने उत्तर दिया - “अगर उन रत्नों को पाने की इच्छा यहाँ है तो रत्न भी यहाँ हैं |”

“लेकिन यह कलियुग है , प्रभु ! कलियुग में प्रकट की हुई इच्छाएं संख्या में अपरिमित है | और उसके ऊपर उन इच्छाएं के मध्य विरोधाभास है सो अलग | उदाहरण के तौर पर जिस मनुष्य ने वे रत्न चुराए थे उसकी इच्छा और बसंत के परिवार की इच्छा अवश्य विरोधाभासी होंगी | दोनों तरफ ही रत्न लेने की इच्छा होगी ! और मुझे संदेह है कि असुर भी उसी मनुष्य का साथ दे रहे हैं जिसने वे रत्न चुराए थे | तभी तो हमें वे रत्न प्राप्त नहीं हुए !” उर्वा इस उम्मीद में यह सब बोला कि हनुमान जी से उसे कोई सरल उत्तर प्राप्त होगा | हनुमान जी ने उत्तर दिया - “जिस मनुष्य ने वे रत्न चुराए थे उसके जीवन में शांति भंग हो गई | किसी ज्ञानी पुरुष के कहने पर उसने उन रत्नों को एक डिब्बे में डालकर नदी में फेंक दिया | वह डब्बा तैरते हुए समुद्र में पहुंचा , फिर सालों समुद्र में रहकर डब्बा क्षीण हुआ और समुद्रतल में डूब गया |”

“तो वे रत्न समुद्रतल में हैं !” उर्वा की आँखे एकबारगी तो चमक उठी लेकिन अगले ही क्षण आये विचार ने वो चमक सोख ली - “लेकिन वहां से रत्न वापिस कैसे आयेंगे ?” हनुमान जी पुनः मुस्कुराये और अपने शब्द दोहराए - “अगर उन रत्नों को प्राप्त करने की इच्छा यहाँ है तो वे रत्न भी यही हैं |”

“लेकिन ... यह ... कलियुग है ... “ उर्वा बुदबुदाया |

बाबा मातंग ने उलझन में फंसे उर्वा को समझाया - “हम इस समय हनुमंडल के अन्दर खड़े हैं और यहाँ पर सतयुग जैसा है | अगर यहाँ कोई इच्छा प्रकट की जाती है तो वह बिना किसी विरोधाभासजनित अवरोध के पूर्ण हो जायेगी | वे रत्न जहाँ भी हों वे यही हनुमंडल में आ जायेंगे |”
जब बाबा मातंग ने अपना वक्तव्य पूर्ण किया , हनुमंडल के बाहर खड़े असुरों और ऊपर उड़ रहे सुरों में हलचल दिखाई दी | बाबा को अहसास हुआ कि उस हलचल का स्त्रोत वे नहीं अपितु बसंत था जो अपनी जगह पर आँखे बंद किये बैठा था और होंठों से कुछ बुदबुदा रहा था | स्पष्टत: वह रत्न प्राप्त करने की इच्छा प्रकट कर रहा था | बाबा तुरंत बोले - “रुको , रुको , ऐसा मत करो |”

सबने बसंत की तरफ जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखा , विशेषतः उर्वा ने | बाबा मातंग बोले - “बसंत , तुम्हे पता है तुमने अभी अभी कितनी इच्छाएं प्रकट की ? हज़ार से भी ज्यादा ! हाँ ! इच्छाएं जागृत मन से ही नहीं अपितु अर्द्ध-जागृत और सुप्त मन से भी प्रकट होती हैं | जब तुम अभी अभी अपने जागृत मन से रत्न वापिस पाने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे , उन्ही कुछ पलों में तुम्हारा अर्द्धजागृत तथा सुप्त मन उस त्रासदीपूर्ण घटना से लेकर आज तक की रत्नों से जुडी तुम्हारी सभी स्मृतियों को खंगाल रहा था | कुछ ही पल में तुमने हज़ारों इच्छाएं प्रकट कर दी | अगर तुम्हे अपनी रत्न वापिस पाने के इच्छा पूर्ण करनी है तो तुम्हे केवल वही इच्छा प्रकट करनी होगी -- उसके साथ कोई भावना अथवा कोई अन्य इच्छा जोड़े बिना | इस समय तुम ऐसा नहीं कर पाओगे | तुम्हे सबसे पहले अपने कर्मों को परिष्कृत करना पड़ेगा | अतः जब तक मै अर्पण की प्रक्रिया पूर्ण न कर लूँ , कृपा शांत बैठे रहो |”

“मै क्षमा चाहता हूँ |” बसंत खड़ा होकर बोला - “अब मैं आपके विद्वतापूर्ण शब्दों से प्रबुद्ध हो गया हूँ | मैं शांति से बैठूँगा | कृपा प्रक्रिया शुरू करें |”
जब बसंत अपनी जगह पर वापिस शांति से बैठ गया , बाबा मातंग ने अर्पण की प्रक्रिया शुरू की | हनुमान जी को संबोधित करते हुए बोले - “हे हनुमान जी ! अगर बसंत की आत्मा यहाँ एक मातंग के रूप में उपस्थित है तो यह इसके पिछले कर्मों के कारण है | आज इसकी आत्मा जो भी है वह वस्तुतः इसके पिछले कर्मों का कुल जोड़ है | बसंत फलों की एक टोकरी अर्पण के लिए लाया है | यह फल भी इसके पिछले कर्मों का कुल जोड़ हैं | आज इसकी आत्मा अपनी सभी इच्छाओं को त्यागने की इच्छा रखती है और अपने सभी पिछले कर्मों को आपके पवित्र चरणों में समर्पित करना चाहती है | यजमान बसंत की तरफ से मै यह फल एक एक करके आपके चरणों में अर्पित करने के लिए खड़ा हुआ हूँ |”

हनुमान जी ने अपना मुख हिलाकर अर्पण की आज्ञा दी और आँखे बंद करके ध्यान में चले गए | तीन ब्राह्मण बाबा मातंग की सहायता के लिए खड़े हुए | तीनों के पास एक एक खाली टोकरी थी | उनमे से एक सीधे हनुमान जी के पास गया और उनके चरणों में एक खाली टोकरी रख दी | हनुमान जी के सामने एक आयताकार जलाशय बनाया गया था | दूसरा ब्राह्मण उस जलाशय के उन दो कोनों में से एक के पास गया जो हनुमान जी के नजदीक थे और वहाँ एक खाली टोकरी रख दी | इस टोकरी के चारों ओर लाल रंग का कपडा और लाल धागे लिपटे हुए थे | तीसरा ब्राह्मण उन दो किनारों में से दुसरे किनारे पर गया और वहां एक खाली टोकरी रख दी | यह टोकरी श्वेत रंग के कपडे और श्वेत धागों से लिपटी होने के कारण श्वेत थी |

जब तीनों ब्राह्मण अपने अपने स्थान पर वापिस लौट गए तब बाबा मातंग ने बसंत द्वारा लाई हुई टोकरी में से एक फल उठाया | उन्होंने फल को अपने माथे पर लगाया और कुछ मिनट तक उसी अवस्था में रहे | इस दौरान उनकी आँखे बंद थी और हनुमंडल में भी सन्नाटा था |

बाबा मातंग धीरे से जलाशय के पास आये और उसकी परिक्रमा करने लगे | उर्वा बाबा मातंग की गतिविधियों को बहुत ही पैनी दृष्टि से देख रहा था | जलाशय का एक चक्कर पूरा करने के बाद बाबा मातंग थोड़े से हनुमान जी के चरणों की ओर चले | तुरंत एक असुर हनुमंडल के अन्दर घुस आया | उर्वा ने देखा कि कुछ अन्य असुरों ने भी हनुमंडल में घुसने का प्रयास किया और सुरों में भी हलचल हुई |

बाबा मातंग तुरंत पीछे हट गए और फिर से जलाशय की परिक्रमा करने लगे | वह असुर जो अन्दर घुस आया था , पुनः बाहर चला गया |
जब बाबा मातंग ने दूसरी परिक्रमा पूर्ण की, फिर से वैसा ही हुआ | एक - दो असुर हनुमंडल के अन्दर घुस आये और सुरों में भी गतिशीलता आई | बाबा मातंग ने इस तरह 7 परिक्रमाए की और अंततः फल को जलाशय के एक कोने पर रखी लाल टोकरी में डाल दिया |

बाबा वेदी के पास आ गए जहाँ ब्राह्मण अग्निदेव को पवित्र द्रव की आहुति दे रहे थे | उर्वा भी वही आ गया | बाबा और उर्वा श्लोक उच्चारण करने लगे | ये श्लोक वस्तुतः बाबा और उर्वा के बीच हुआ वार्तालाप का हिस्सा थे जो कुछ यूँ थी :

होतर उर्वा ने कहा - “बाबा , पहला फल लाल टोकरी में गया है न कि हनुमान जी के चरणों में रखी टोकरी में | क्या इसका अर्थ यह है कि चरण पूजा में अर्पण का सबसे पहला प्रयास असफल रहा ?”
बाबा मातंग बोले - “नहीं होतर | प्रयास सफल था | अगर मै उस फल को हनुमान जी के चरणों में अर्पित करने का प्रयास करता तो एक असुर हनुमान जी का असम्मान करने में सफल हो जाता | वह वास्तविक असफलता होती | मैंने सफलतापूर्वक ऐसा होने से बचा लिया और फल को लाल टोकरी में दाल दिया |”

“लेकिन वह फल हनुमान जी को अर्पित नहीं हुआ ना बाबा|”
“हाँ तुम कह सकते हो कि वह फल छंटनी प्रक्रिया में होकर बाहर निकल गया | वह फल हनुमान जी को अर्पित करने योग्य नहीं था |”

“हे बाबा , यहाँ पर उपस्थित मातंगों के ज्ञान लाभ के लिए कृपया विस्तार में बताइये कि वह फल हनुमान जी को अर्पित करने योग्य क्यों नहीं था | कृपया बताएं कि जब आपने फल को अपने माथे से लगाया तो आपने क्या देखा ? और जब आपने जलाशय की परिक्रमा की तो आपने क्या अनुभव किया?”

बाबा ने उत्तर दिया - “हे होतर , जब मैंने उस फल को अपने माथे से लगाया तो बसंत के उन कर्मों को देखा जिनको वह फल प्रतिबिंबित कर रहा है | मैंने बसंत के हज़ारों कर्मों को देखा | उनमे से कुछ कर्म किसी और के प्रभाव में नहीं बल्कि स्वयं बसंत की आत्मा की इच्छाओं के प्रभाव में किये गए थे | लेकिन कुछ कर्म सुरों और असुरो के प्रभाव में किये गए थे | अतः फल का वास्तविक स्वामित्व बसंत की आत्मा, कुछ सुरों तथा कुछ असुरों के बीच बंटा हुआ था | फल के उन सभी स्वामियों में से केवल उस स्वामी को वह फल प्रभु को अर्पित करने या न करने का अधिकार है जिसका हिस्सा उसमे सबसे अधिक है | इस फल में सबसे ज्यादा हिस्सा उस असुर का है जो हनुमंडल के अन्दर घुस आया था | अगर मैं उस फल को प्रभु के चरणों में अर्पित करने का प्रयास करता तो वह असुर यहाँ उपस्थित देहों में किसी भी देह में घुस जाता और फिर या तो वह प्रभु को असम्मानित करने की कोशिश करता अथवा पूजा में कोई और अवरोध पैदा करता | मैंने सफलतापूर्वक ऐसा होने से बचा लिया | अतः चरण पूजा में अर्पण का प्रथम प्रयास सफल कहा जाएगा |”

उर्वा ने पुछा - “बाबा , कृपा हमें बताएं कि वह असुर बसंत के कर्मों में भागीदार कैसे बन बैठा ?”

बाबा मातंग ने उत्तर दिया -“जब मैंने उस फल को अपने माथे पर लगाया , तब मैंने बसंत के बहुत सारे कर्मों को देखा | उन कर्मों में से मैं 3 का वर्णन करता हूँ जिससे यह समझ में आएगा कि वह बसंत के कर्मों में भागीदार कैसे है |

“मैंने देखा कि एक दिन बसंत एक वृक्ष की शाखा पर चढ़ रहा था | उसे आभास था कि एक पक्षी का घोंसला उस शाखा पर है | दुर्घटना से उसका पैर घोंसले पर पड़ गया | घोंसले के अन्दर पक्षी के अंडे थे जो फूट गए | बसंत को बहुत पछतावा हुआ | उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसका पैर घोंसले पर चला कैसे गया जबकि उसे आभास था कि घोंसला शाखा पर है | पक्षी के अंडे तोड़ने के अपराधबोध में उसने स्वयं को बहुत बुरा भला कहा |
“वास्तव में अंडे उसने नहीं तोड़े थे | एक असुर ने उसकी देह का उपयोग करके वह बुरा कार्य किया था | उर्वा , यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि उस असुर ने बसंत की केवल देह को अपने अधीन किया था | बसंत का विवेक स्वयं उसके नियंत्रण में था | विवेक से हम क्या बुरा है और क्या भला इसका निर्णय लेते हैं | बसंत को उस बुरे कार्य का पछतावा था | जब उसका पैर घोंसले पर पड़ा तब उसे अहसास था कि उससे बुरा कार्य हो गया है | अर्थात उसका विवेक उसके स्वयं के अधीन था | असुर ने केवल उसकी देह को अधीन किया था |

“जब कोई असुर किसी देह का उपयोग करके बुरा कार्य करने में सफल हो जाता है तो वह उसी देह के आस पास मंडराता रहता है , इस ताक में कि उसे फिर से कोई बुरा कार्य करने का अवसर प्राप्त हो और वह उस देह का उपयोग वह बुरा कार्य करने के लिए करे | इतना ही नहीं , वह बुरे कार्य का अवसर पैदा करने के लिए भी उस देह तथा मन को चालाकी से प्रयोग करने की कोशिश करता है | यही असुरों का स्वभाव है |

“वह असुर भी फिर से बुरा कार्य करने के अवसर की ताक में बसंत की देह के आस पास मंडराता रहा | और फिर अवसर भी आया | कुछ दिन बाद बसंत एक मधुमक्खी के छाते से शहद तोड़ रहा था | पास में एक पक्षी का घोंसला कुछ इस प्रकार स्थित था कि बसंत को वह एक बेवजह का अवरोध लगा | उसने लात मारकर वह घोंसला नीचे गिरा दिया ताकि वह आसानी से शहद इकठ्ठा कर सके | जब उसने सारा शहद तोड़ लिया तब उसने नीचे पड़े घोंसले को देखा | उसमे जो अंडे थे वे फूट गए थे | उसे अहसास हुआ कि घोंसले को गिराने का उसका निर्णय सही नहीं था | “मै इतना बुरा कार्य कैसा कर सकता हूँ ? मै उस घोंसले को बिना गिराए भी अपना शहद तोड़ सकता था |” उसे बहुत पछतावा हुआ | वास्तव में वह बुरा कार्य उसने नहीं बल्कि असुर ने उसकी देह का उपयोग करके किया था | यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इस बार असुर ने न केवल उसकी देह को अपने अधीन किया था , बल्कि उसके विवेक को भी अपने अधीन कर लिया था | तभी तो उसने अपने विवेक से घोंसला गिराने का बुरा निर्णय लिया | वह बाद में पछताया क्योंकि उसका “संस्कार” असुर ने अपने अधीन नहीं किया था | उसे अपने संस्कार के अनुसार वह कार्य बुरा लगा इसीलिए वह पछताया |
“कुछ महीने बाद मैंने बसंत को अपने कार्य हेतु एक विशेष पक्षी का पंख लाने के लिए कहा | जब उसे कई घंटों तक कोई पंख नहीं मिला तो उसने पंख के लिए उस विशेष पक्षी को मारने का निश्चय किया | उस शाम जब वह पंख लेकर मेरे पास आया तो मैं तुरंत समझ गया कि उसने एक पक्षी की हत्या की है | जब मैंने उसके लिए सजा घोषित की , वह मुझसे बहस करने लगा | उसने तर्क दिया, उस पक्षी को किसी न किसी दिन मरना ही था , रोज इस संसार में पता नहीं कितने पक्षी मासाहारी प्राणियों का आहार बनते हैं | उसे अपने बुरे कर्म का ज़रा सा भी पछतावा नहीं था | अर्थात असुर ने न केवल उसकी देह, मन तथा विवेक को अपने अधीन कर लिया था , उसका संस्कार भी असुर के अधीन हो गया था |

“क्या तुम्हे अब समझ आ रहा है होतर कि वह असुर बसंत के कर्मों में भागीदार कैसे बना ? क्या तुम्हे अब समझ आ रहा है कि क्या होता अगर मै वह फल प्रभु के चरणों में अर्पित करने की कोशिश करता?” बाबा का श्लोक था |
उत्तर में उर्वा का श्लोक था - “हाँ हे मातंगों में श्रेष्ठ! अब मै समझ गया हूँ कि वह असुर हनुमंडल में कैसे प्रविष्ट कर गया था ! अगर आप हनुमान जी के चरणों में वह फल अर्पित करने का प्रयास करते तो वह असुर आज फिर एक, और बड़ा , बुरा कर्म करने में सफल हो जाता | और फिर वह और भी ज्यादा शक्ति से बसंत की देह के पास मंडराता रहता |”

बाबा ने उर्वा को संबोधित करते हुए एक और श्लोक का उच्चारण किया - “हे मातांगो के भविष्य के रक्षक , हे उर्वा , बताओ कि अब जबकि मैंने उस असुर के द्वारा एक और बड़ा बुरा कार्य करने का प्रयास असफल कर दिया है तो इसका क्या असर होगा ?”

उर्वा ने उत्तर दिया - “अब वह असुर बसंत के आस पास मंडराना बंद कर देगा क्योंकि यह असुरों को स्वाभाव है -- जब कोई आत्मा उन्हें बुरा कार्य नहीं करने देती है तो वे किसी अन्य स्थान पर अपना अवसर तलाशने निकल जाते हैं |”

उर्वा और बाबा अब वेदी से उठ गए जबकि अन्य ब्राह्मणों ने अग्निदेव को आहुति देने का क्रम जारी रखा | उर्वा होतर के लिए निर्धारित स्थान पर बैठ गए और बाबा ने बसंत द्वारा अर्पण के लिए लाइ गई फलों की टोकरी में से एक फल और उठा लिया | हनुमान जी अब भी ध्यान में थे और उनकी आँखें बंद थी |

बाबा ने दुसरे फल के लिए प्रक्रिया को दोहराया | अंततः उन्होंने दूसरा फल भी लाल टोकरी में डाल दिया | एक के बाद एक 3 दर्जन से अधिक फलों को लाल टोकरी में ही स्थान मिला | उसके बाद एक फल श्वेत टोकरी में डाला गया (एक फल श्वेत टोकरी में तब डाला जाता है जब उस फल का सबसे ज्यादा स्वामित्व किसी सुर के पास हो |)

लगभग 3 घंटे बीत गए | बसंत की टोकरी में अब केवल 1 फल बचा था | लाल टोकरी में ज्यादातर फल गए थे जबकि एक दो फल श्वेत टोकरी में दिखाई दे रहे थे | जब कोई फल श्वेत या लाल टोकरी में गिरता था तब बसंत की आत्मा हल्का महसूस कर रही थी क्योंकि उसको सुरों और असुरों के प्रभावों से छुटकारा मिल रहा था |

बाबा मातंग चिंतित दिखाई दे रहे थे | उसका कारण यह था कि हनुमान जी के पवित्र चरणों में रखी टोकरी अब भी पूरी तरह खाली थी | अभी तक एक भी फल इस योग्य नहीं मिला था जिसे हनुमान जी को अर्पित किया जा सके | यह शुभ संकेत नहीं था , विशेषकर इसलिए कि यह चरण पूजा का सबसे पहला अर्पण था |

यह बाबा मातंग के “मातंग पवित्रता” के दंभ को भी चोट थी | वह हमेशा उदाहरण देते थे कि “बाहर वाले मनुष्य” (अर्थात जो मातंग नहीं हैं) किस प्रकार सुरों तथा असुरों के अत्यधिक प्रभाव में रहते हैं | लेकिन वहां , उन्ही के कुल का , एक मातंग , एक भी ऐसा फल लाया प्रतीत नहीं हो रहा था जो हनुमान जी को अर्पित करने योग्य हो |

जब बाबा मातंग ने बसंत की टोकरी से अंतिम फल उठाकर अपने माथे से लगाया तो उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया | जिन कर्मों का प्रतिबिम्ब वह फल था , उनमे से ज्यादातर कर्म सुरों और असुरों के प्रभाव में प्रतीत हो रहे थे | उन्होंने जलाशय की परिक्रमा आरम्भ की | 7 बार परिक्रमा करने के बाद निष्कर्ष निकला कि वह फल भी लाल टोकरी में डालने योग्य ही था |

बाबा मातंग उस फल को लाल टोकरी में डालने को झुके ही थे कि उन्हें अच्छा विचार आया | वे जलाशय की 8 वी बार परिक्रमा करने लगे |
फल केले का था | 8 बार जलाशय की परिक्रमा करने के पश्चात् उन्होंने फल को अपने हाथ में इधर उधर घुमाया | ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे कुछ आंकलन कर रहे थे | उन्होंने केले के छिलके को एक तरफ से छीला और छीले हुए छिलके को लाल टोकरी में डाल दिया क्योंकि वह किसी असुर के मुख्य स्वामित्व में था |

उन्होंने कई बार जलाशय की परिक्रमा की | हर बार केले के एक भाग को अलग किया , आंकलन किया कि वह भाग किसके स्वामित्व में है और उसी अनुसार उस भाग को टोकरियों में रखते चले गए | अंततः उन्हें केले का एक ऐसा छोटा भाग ढूंढ लिया जिस पर बसंत की आत्मा का पूर्ण स्वामित्व था | उन्होंने केले के उस भाग को हनुमान जी के चरणों में रखी टोकरी में रख दिया |

चरण पूजा का पहला अर्पण जो यजमान बसंत की तरफ से था , पूर्ण हुआ | हनुमान जी ने अपनी आँखे खोली | उन्होंने अर्पित किये गए केले के छोटे से टुकड़े की ओर देखा और मुस्कुरा दिए | बाबा मातंग विनम्रता से बोले - “हे प्रभु , मुझे क्षमा करें | मैंने अपने कुल में अधिकतम पवित्रता के मानक बनाए रखने की कोशिश की है | लेकिन बसंत कुछ विशेष परिस्तिथियों में पला बढ़ा है जो सप्त कन्या पर्वत में रत्न खो जाने के बाद शुरू हुए | इसके कर्म सुरों और असुरों ने अत्यधिक मात्रा में प्रभावित किए हैं | यह फल का एक टुकड़ा ही यह आपको अर्पण कर पाया है | मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे अर्पण के लिए ओर अवसर प्रदान करें | जब तक चरण पूजा चलती है तब तक हर रोज एक घडी बसंत को यजमान बनाया जाए ताकि वह अपने कर्मों का परिष्करण कर सके |”

हनुमान जी मुस्कुरा भर दिए | उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला | बाबा मातंग ने धीमी आवाज में बड़ी विनम्रता से कहा - “हे प्रभु , मै अब होतर उर्वा को अनुरोध करता हूँ कि वे कपिद्रष्ट को हनुमंडल के अन्दर सादर ले आयें |

कपिद्रष्ट , “होतर” की तरह ही एक पद होता है जो किसी वानर को मिलता है | कपिद्रष्ट के बिना अर्पण पूर्ण नहीं होता | बाबा मातंग के निर्देशानुसार उर्वा कपिद्रष्ट वानर को हनुमंडल के अन्दर ले आया |

कपिद्रष्ट ने हनुमान जी के आसन के चारों और परिक्रमा लगाईं | यह हनुमान जी को प्रणाम कहने का उसका तरीका था | उसके पश्चात् वह हनुमान जी के सामने बैठ गया और अपनी मासूम दृष्टि से हनुमान जी को एकटक निहारने लगा | हनुमान जी मुस्कुराये और बोले - “हे कपिद्रष्ट , बसंत मातंग ने मुझे यह फल का एक टुकड़ा श्रद्धा से अर्पित किया है | मैं इसको आपके मुख के माध्यम से आहूत करना चाहता हूँ |”

कपिद्रष्ट ने हनुमान जी के चारों ओर एक और परिक्रमा लगाईं और फिर हनुमान जी के चरणों में रखी टोकरी में से फल के टुकड़े को उठा लिया | फल खाने के पश्चात् उसने हनुमान जी का आभार व्यक्त करने के लिए उनके आसन की एक और परिक्रमा की | हनुमान जी ने अपने पेट पर हाथ रखा और बोले - “क्या स्वादिष्ट अर्पण है |” (जैसे कि कपिद्रष्ट वानर ने नहीं बल्कि उन्होंने ही फल खाया हो |)

कपिद्रष्ट के मुख से चीख निकली | वह कह रहा था - “हे प्रभु , आप वो हैं जो इस संसार में चिरंजीवी फल खाने के लिए प्रसिद्ध हैं -- वह फल जो आकाश में लटकता है और इतना दैदीप्यमान है कि इस संसार के सभी फल उसी से प्रकाशित होते हैं | वह फल जो इतनी दूरी पर लटका हुआ है कि नश्वर प्राणी उस तक नहीं पहुँच सकते | अगर कोई उस तक पहुँचने का प्रयास करता है तो वह फल अपनी आभा से उसे जला देता है | जिन प्रभु ने प्रसिद्ध रूप से उस फल का सेवन किया है , उन प्रभु को यह केले का छोटा सा टुकड़ा कैसे स्वादिष्ट लग सकता है ? मै मानता हूँ कि आप अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए ऐसा कह रहे हैं |”

वानर की उस चीख से उर्वा की आँखें चमक उठी | उसे एक ऐसा प्रश्न ध्यान में आ गया था जो वह हमेशा पूछना चाहता था | उसने एक भी पल व्यर्थ नहीं किया | तुरंत पूछा - “हे प्रभु हनुमान , हम मातांगो को यह विशेष वरदान है कि हम वानरों से वार्तालाप कर सकते हैं | बहुत सारी चीजें जो उन्हें दिखाई देती हैं वे लगभग वैसी ही हैं जैसी हमें दिखाई देती हैं | लेकिन कई बार जो उन्हें दिखाई देता हैं वह हमें समझ में नहीं आता | उदाहरण के तौर पर वे सूर्य को एक सितारे के रूप में नहीं देखते | उन्हें आकाश में सूर्य की जगह एक बड़ा फल लटकता नजर आता है जिसे वे चिरंजीवी फल कहते हैं | रात्री में जब हम मनुष्य सितारों से भरा आसमान देखते हैं , वानरों को उसकी जगह फलों का बाग़ नजर आता है | मैंने बाबा से कहानियाँ सुनी हैं कि आपने भी एक बार सूर्य को फल समझ लिया था और उसे खाने का प्रयास ... किया ... था ...”

इससे पहले कि उर्बा अपना प्रश्न पूरा करता, कपिद्रष्ट फिर से चीखा | वह कह रहा था - “प्रयास नहीं किया था बल्कि खा ही लिया था | अगर आप चिरंजीवी फल की ओर किसी तरह जाने का प्रयास करोगे तो वह आपको भस्म कर देगा | आप उसे नहीं खा पायेंगे , वह आपको खा जाएगा | लेकिन हनुमान जी ने सफलता पूर्वक उसका सेवन किया था और चिरंजीवी हो गए |”

उर्वा शांतिपूर्वक बोला - “हाँ कपिद्रष्ट महाशय , आप ठीक कह रहे हैं | हनुमान जी अपनी देह को विखंडित करने का योग कर रहे थे | उन्होंने सूर्य की ओर उड़ान भरकर सफलतापूर्वक उस योग में सिद्धि प्राप्त की ... अर्र ... मेरा मतलब है चिरंजीवी फल की ओर उड़ान भरकर |”

कपिद्रष्ट फिर से चीखा , इस बार बड़े ही नम्रतापूर्वक , प्रभु हनुमान जी की ओर मुख करके | वह कह रहा था - “हे प्रभु , ये मनुष्य अजीब बाते करते हैं .... zzz…zzz ...”

कपिद्रष्ट को शायद चक्कर आ रहे थे --- और उसका कारण या तो फल का वो टुकड़ा था जो उसने खाया था और या पवित्र द्रव की आहुति से निकलने वाला धुआ था | वह हनुमान जी के पास गया , उनके आसन से अपना सिर टिकाया और हनुमान जी के चरणों के समीप निद्रा में चला गया |

हनुमान जी ने सोते हुए वानर की ओर वात्सल्य से देखा | फिर उन्होंने आसमान की ओर देखा | सुर जो वहां पर छत जैसा आभास दे रहे थे, ने स्वयं को इस तरह इधर उधर किया कि मातांगो को सूर्य दिखाई देने लगा | हनुमंडल में उपस्थित सभी (कपिद्रष्ट को छोड़कर ) ने सूर्य को प्रणाम किया | बाबा मातंग बुदुबुदाये - “आह ! चरण पूजा का पहला सूर्योदय |”
हनुमान जी ने उर्वा से पूछा - “हे होतार, तुम्हे वहां क्या दिखाई दे रहा है ?”
“सूर्य, प्रभु! “ उर्वा ने तुरंत उत्तर दिया , “वह दैत्याकार आग का गोला जिसके चारों ओर हमारी पृथ्वी घुमती है |”

हनुमान जी ने पुछा - “तुम इसको कैसे देख रहे हो ? इसको देखने के लिए किस यन्त्र का प्रयोग कर रहे हो ? स्मरण है न कि तुम एक आत्मा हो | और आत्मा को कुछ भी अनुभव करने के लिए एक यन्त्र की आवश्यकता होती है ?”

उर्वा ने उत्तर दिया - “मैं इसे अपनी आँखों से देख रहा हूँ प्रभु ! अपनी त्वचा से महसूस कर रहा हूँ | अपने मन से

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