अद्धभुत कथा विशेषांक :
कृष्ण-सुदामा मित्रता की लीला भगवान कृष्ण के दृष्टिकोण से (सापेक्षता का रहस्य) :
जब यजमान जानकिरुपा के लिए अर्पण की प्रक्रिया संपन्न हो गई , हनुमान जी उससे बोले – “देवी , जिस श्रद्धा के साथ आपने अपने कर्मों का समर्पण किया है उससे मैं खुश हूँ | बोलो , प्रसाद में क्या पाने की इच्छा रखती हो |”
जानकीरूपा ने उत्तर दिया – “प्रभु , हम मातंग केवल एक ही दीर्घकालीन सम्पति अपने पास रखते हैं – वे रत्न जो हमें अपने पुरखों के साथ संपर्क करने में सहायक होते हैं | मेरे पति बसंत के पिता ने हमारे वो पारिवारिक-रत्न बहुत पहले सप्तकन्या पर्वत पर खो दिए | वे न तो मोक्ष प्राप्त कर सके और न ही पुनर्जीवन क्योंकि उनकी आत्मा केवल एक इच्छा पर अटक गई है , वो इच्छा है हमारे वो पारिवारिक रत्न पुनः प्राप्त करना |
“चरणपूजा का पहला सत्र मेरे पति बसंत के लिए आयोजित किया गया था लेकिन वे रत्न पाने की इच्छा प्रकट करने से झिझक गए | उन्होंने इसकी बजाय आत्मज्ञान की इच्छा प्रकट की | यह इच्छा प्रकट करने पर शायद मैं स्वार्थी समझी जाउंगी , किन्तु मैं आपसे अपने वे पारिवारिक रत्न वापिस लाने की प्रार्थना करती हूँ ताकि मेरे ससुर को मोक्ष मिल जाए और मेरा परिवार भी शांति से मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सके | यह इच्छा ही हमारे मार्ग का एकमात्र रोड़ा है | कृपा इस रोड़े को हटाइए | मैं प्रसाद में केवल यही इच्छा रखती हूँ |” जानकीरूपा ने अपनी बात समाप्त की |
बाबा मातंग जानकिरूपा से नाखुश हो गए क्योंकि मातंग परंपरा में कोई सांसारिक वस्तु प्रार्थना में नहीं माँगा करते | जानकीरूपा ने उस परम्परा का उल्लंघन कर दिया था | वह बाबा मातंग का क्रोध झेलने के लिए तैयार थी | हनुमान जी ने प्रार्थना सभा में बेचैनी को भांप लिया और बोले – “हे जानकीरूपा , मैं आपके परिवार के रत्न चरणपूजा के पहले चरण में ही ला देता | मुझे ऐसा करने में एक क्षण भी नहीं लगने वाला है | लेकिन उन खोये हुए रत्नों का उदाहरण देकर मैं आप लोगो को इस संसार का वो सुन्दर रहस्य समझाना चाहता हूँ जिसकी सहायता से आपको आत्मज्ञान प्राप्ति में सहजता होगी| इसे सापेक्षता का रहस्य कहते हैं | मैं चाहता हूँ कि आप लोग मेरी ओर ध्यानपूर्वक देखे | मैं आप लोगो को कुछ अति महत्वपूर्ण दिखाने वाला हूँ |”
हनुमान जी ने आँखे बंद करके अपने हाथों से एक विशेष मुद्रा बनाई | मातंगो ने देखा कि हनुमान जी का आकार बढ़ गया | जिस आसन पर वे बैठे हुए थे वह आसन अब उनकी बड़ी देह के लिए अपर्याप्त लग रहा था | हनुमान जी बोले – “आप सबने देखा कि मैंने अपनी देह का आकार बढ़ा लिया है | इसका अर्थ यह है कि मेरे आस पास की चीजें वैसे की वैसे रही , किन्तु केवल मेरी देह का आकार बढ़ गया | तब क्या होगा अगर मेरे आस पास की चीजें भी उसी अनुपात में बढ़ जाएँ ? मेरे आस पास क्या चीजे हैं ? मेरे नीचे की धरती ; मेरे सामने का जलकुंड ; कुंड के अन्दर का जल ; आप सब मातंग ; वे असुर जो हनुमंडल की लाल चारदीवारी का हिस्सा हैं ; वो सुर जो इस हनुमंडल की श्वेत छत का भाग हैं | क्या होगा अगर ये सारी चीजें बराबर अनुपात में बढ़ जाएँ ?”
हनुमान जी पुनः अपने सामान्य आकार में लौट आए , अपनी आँखें बंद की और अपने हाथों से विशेष मुद्रा बना ली | कुछ क्षण बाद उन्होंने अपनी आँखे खोली और बोले – “हे मातंगो , क्या आपने मेरी देह के आकार में पुनः वृद्धि देखि?”
मातंगो ने उत्तर दिया – “नहीं प्रभु , इस बार आपका आकार नहीं बढ़ा है |”
हनुमान जी मुस्कुराये और बोले – “आप में से चार लोग खड़े हो जाइए और चार भिन्न दिशाओं से हनुमंडल से बाहर निकलिए|”
चार मातंग खड़े हो गए और हनुमंडल से बाहर आ गए | बाहर उन्होंने जो देखा उन्हें उस पर विश्वास नहीं हुआ | उन्होंने देखा कि उनकी देहों के आकार वृक्षों के आकार के हो गए थे | उनके हनुमंडल से बाहर निकलते ही पक्षियों ने बुरी तरह से चहचहाना शुरू कर दिया | जब उन्होंने अपनी देह के इतने बड़े आकार को देखा तो वे घबरा गए और तुरंत वापिस हनुमंडल के अन्दर भागे |
हनुमंडल के अन्दर सब कुछ सामान्य लग रहा था | हनुमान जी बोले – “शांत हो जाओ और बताओ आपने बाहर क्या देखा?”
उनके चेहरे भय से सफ़ेद हो गए थे | बड़ी मुश्किल से उन्होंने ये शब्द निकाले – “हम ... वृक्षों ... के ... आकार ... के ... हो ... गए ... हैं ...”
सभी मातंगो ने एक दुसरे के चेहरे को देखा | हनुमान जी बोले – “हाँ , भगवान् इंद्र ने हनुमंडल के अन्दर की सभी चीजों के आकार में वृद्धि कर दी है | उसमे आपकी देहें भी शामिल हैं | आप सब वृक्षों जितने बड़े आकार के हो गए हो | जब आप हनुमंडल के अन्दर हो तो आपको यह महसूस नहीं हो रहा क्योंकि हनुमंडल के अन्दर की हर वस्तु का आकर समानुपात में बढ़ गया है | धरती बढ़ गयी है | मिटटी का हर कण बढ़ गया है | आपकी देह की हर कोशिका बढ़ गई है | लाल दीवार और श्वेत छत बढ़ गई है | समानुपात में | इसी कारण जब आप हनुमंडल में हो आपको आकार में कोई परिवर्तन महसूस नहीं हो रहा है | लेकिन जब आप हनुमंडल से बाहर जाकर देखते हो तो बाहर की वस्तुओं की तुलना में आप अपना आकार बढ़ा हुआ पाओगे | आपमें से कोई भी बाहर जाकर यह महसूस कर सकता है | जैसे ही आप हनुमंडल से बाहर जाओगे , आप देखोगे कि आपका आकार वृक्षों जितना बड़ा हो गया है |”
जिन चार मातंगो ने यह देखा था वे अब भी सदमे में थे | किसी अन्य मातंग की हिम्मत नहीं हुई कि वे हनुमंडल से बाहर कदम रखते | हनुमान जी ने पुनः अपनी आँखे बंद की ओर सब कुछ पुनः सामान्य कर दिया | वे बाबा मातंग को बोले – “बाबा मातंग | अब आप सबके आकार पुनः सामान्य हो गए हैं | कृपा इन 4 मातगों को हनुमंडल से बाहर ले जाओ ताकि वे पुनः अपना सामान्य आकार देख सके और सदमे से बाहर आ सकें |”
बाबा मातंग ने हनुमान जी के निर्देशों का पालन किया | हनुमंडल से बाहर एक छोटी सी सैर उन चार मातंगो को सदमे से बाहर ले आई | हनुमान जी ने पुनः प्रवचन शुरू किया | वे बोले – “हे मातंगो , आपको यह रहस्य अच्छे से समझने की आवश्यकता है | अगर आप इसे समझ लोगे तो माया आपको बंदी नहीं बना पाएगी | जो मैं बोलू उसे दोहराना और उसे हमेशा याद रखना |
हम अपने आस पास केवल सापेक्ष बदलाव महसूस कर सकते हैं | अगर सब कुछ बराबर अनुपात में बदल जाए तो हम उस बदलाव को महसूस नहीं कर सकते |”
सभी मातंगो ने हनुमान जी के इस व्यक्तव्य को जोर से दोहराया |
यजमान जानकिरुपा को अपने पारिवारिक रत्न वापिस पाने की तीव्र इच्छा थी | वह विनम्रतापूर्वक बोली – “हे प्रभु , मुझे यह समझ नहीं आया कि आपका यह व्यक्तव्य मेरी इच्छा से कैसे सम्बन्ध रखता है |”
बाबा मातंग पुनः तनाव में आ गए | उन्होंने अपने मन में सोचा – “शायद मैं मातंग परम्परा को बनाये रखने में अक्षम रहा हूँ | अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि एक मातंग महिला इस तरह से अपनी सांसारिक इच्छा प्रकट करे?”
इस बार हनुमान जी भी क्रोधित दिखाई पड़े | वे बलपूर्वक बोले – “हे जानकिरुपा, अपने कान की बालियाँ उतारो और इस जलकुंड में गिरा दो |”
यजमान जानकीरूपा काम्पना शुरू हो गई | अपनी कान की बालियाँ निकालते समय वह बुदबुदाई – “हे प्रभु, मेरा लगाव सांसारिक चीजों से नहीं है – चाहे ये बालियाँ हो अथवा वे रत्न | मैं तो प्रसन्नतापूर्वक अपनी देह भी आपके चरणों में अर्पित करके मृत्यु को गले लगा लूँ |”
उसने आगे बढ़कर अपनी बालियाँ जलकुंड में गिरा दी | हनुमान जी अब अपनी आवाज में नरमपन ले आये और बोले – “हे मातंगो , वे बालियाँ जो जानकिरूपा के कान में थी अब वे इस जलकुंड में हैं | आप सबने ऐसा होते हुए देखा |
जानकीरूपा के इन बालियों के साथ बहुत सारे अनुभव हैं | उसे याद है जब उसने पहली बार वो बालियाँ अपने कानों में पहनी थी | उसे वह दिन भी याद है जब वह सो रही थी और उसके बालक ने उन बालियों को खींच लिया था जिससे उसे बहुत ज्यादा दर्द व चोट पहुंची थी | इन बालियों की यादे इसके ही नहीं बल्कि आप सब लोगो के दिमाग में भी हैं | आप सबने उसे ये बालियाँ सालों से पहनते हुए देखा है | ये सब अनुभव भूतकाल में हुए हैं इसलिए आप इन्हें “यादें” कहते हैं |
वे अनुभव समय के पटल पर अस्तित्व के द्रव के साथ बनाई गई एक कलाकृति की तरह हैं | देव इंद्र और काल देव की सहायता से मैं उन बालियों सम्बंधित सभी अनुभवों को इस विश्व से अब पूरी तरह से साफ़ करने वाला हूँ |”
हनुमान जी ने अपनी आँखें बंद की और एक मंत्र जपा जो संभवतः इंद्र और काल को दिया गया निर्देश था | मातंगों ने एक द्रव के श्वेत कणों को चारों ओर से उड़कर आते हुते और जलकुंड में धारा बनकर गिरते हुए देखा |
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , मैंने यजमान जानकीरूपा से अभी अभी एक छोटी सी चीज ली है , बताओ वो क्या है ?”
मातंगो को इस बारे में कुछ पता नहीं था |
हनुमान जी ने उनको याद दिलाने की कोशिश की – “हे मातंगो , मैंने जानकीरूपा के कान की बालियाँ ली हैं | क्या आपको याद नहीं है ? उसने अपने कान की बालियाँ मेरे कहने पर इस कुंड में कुछ देर पहले डाली थी |”
यजमान जानकिरूपा बोली – “हे प्रभु, मैं कान की बालियाँ नहीं पहनती | मैंने कोई बालियाँ जलकुंड में नहीं गिराई |”
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , आप सबने इसको जलकुंड में बालियाँ गिराते हुए देखा था | हैं ना?”
“नहीं प्रभु, वह बालियाँ नहीं पहनती |” सभा से आवाजे आई |
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , अब मेरी बात ध्यान से सुनो | बालियों के साथ साथ मैंने उन बालियों से सम्बंधित सभी अनुभवों को मिटा दिया है | इसीलिए आपको याद नहीं है कि उसके पास बालियाँ थी जो मैंने उससे ले ली हैं |
इसको सापेक्षता का रहस्य कहते हैं | हम केवल सापेक्ष बदलावों को ही महसूस कर सकते हैं | अगर इस विश्व में सब कुछ एक ही अनुपात में बदल जाए तो हम उस बदलाव को अनुभव नहीं कर सकते |
“जब मैंने इससे बालियाँ ली तो आप सबने यह होते देखा क्योंकि बदलाव केवल बालियों के साथ हुआ था |
“जब मैंने बालियों के साथ साथ बालियों से सम्बंधित सभी अनुभव भी ले लिए तो आपने वह बदलाव महसूस नहीं किया क्योंकि वह बदलाव पूरे विश्व पर समान अनुपात में हुआ |
“किसी भी गुरु के लिए इस रहस्य को अपने शिष्यों को समझाना सबसे कठिन होता है | गुरुओं के लिए चीजें आसान करने के लिए भगवान् विष्णु ने एक अद्भुत लीला की थी , तब जब वो यहाँ श्री कृष्ण रूप में थे |
“एक बार कृष्ण और बलराम हस्तिनापुर से वापिस लौट रहे थे | द्वारका कुछ मील दूर थी | वे कौरवों और पांडवों के झगडे के बारे में बाते करते आ रहे थे |
“बलराम ने प्रभु श्रीकृष्ण से पूछा – “कान्हा , अर्जुन तुम्हारे हृदय के इतने करीब है और तुम उसे अपना करीबी मित्र मानते हो लेकिन तुम दुर्योधन को पसंद नहीं करते | यह पक्षपात क्यों ? वे दोनों समान रूप से हमारा सम्मान करते हैं | हमारे लिए वे दोनों एक समान होने चाहिए | तुम्हे अर्जुन को अपना मित्र क्यों चुना, दुर्योधन को क्यों नहीं ?”
“भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया – “दाऊ , मैंने अर्जुन को अपना मित्र नहीं चुना | अर्जुन ने मुझे चुना है |”
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“बलराम बोले – “कान्हा , तुम कभी भी सीधा उत्तर नहीं देते | जब भी मैं तुमसे कोई प्रश्न पूछता हूँ तुम जटिल से उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा दबा देते हो | लेकिन इस बार मैंने तुम्हे पकड़ लिया है | तुम कहते हो कि अर्जुन ने तुम्हे चुना है | इसका अर्थ यह है कि अगर कोई भी तुम्हे अपना मित्र चुनेगा तो तुम उसके मित्र बन जाओगे | उस झोपडी को देखो जो वहां है | मान लो कि उसमे रह रहा व्यक्ति तुम्हे अपना मित्र चुन लेता है तो क्या तुम उसके मित्र बनोगे?”
“प्रभु कृष्ण ने रथ रोक लिया , एक बड़ी सी मुस्कान होंठों पर लाकर बोले – “हाँ दाऊ , बिलकुल बनूँगा |”
“भगवान् कृष्ण ने जिस आत्म विश्वास से रथ रोका और मुस्कराहट दी , बलराम को विश्वास हो गया कि उन द्वारा भगवान् कृष्ण को दी गई वह चुनौती उनके लिए कठिन नहीं थी | वे बोले – “कान्हा , तुम उस मनुष्य को जानते तक नहीं | तुम उससे कभी नहीं मिले हो | वह कोई बुरा मनुष्य निकला तो?”
“भगवान कृष्ण बोले – “कोई बात नहीं दाऊ | अगर वह मनुष्य मुझे मित्र चुनता है तो मैं उसकी मित्रता का प्रतिदान अवश्य करूँगा | क्या हम उस झोपडी में जाएँ ?”
“”नहीं ... नहीं ... नहीं ...” बलराम बोले – “कान्हा , रूको | चलो मैं इस बात को दूसरी तरह से रखता हूँ | अगर कोई मनुष्य अपनी आत्मा की गहराई से तुम्हारी मित्रता की इच्छा करता हो तो तुम उसके मित्र बनोगे | सही है न ?”
““हाँ दाऊ , आप हमेशा सही होते हो |” श्री कृष्ण जी ने चापल्य्पूर्ण मुस्कान के साथ कहा |
“बलराम जी की आँखे चमक उठी | वे बोले – “मैंने अबकी बार तुम्हे पकड़ लिया है | मैं अब सिद्ध कर सकता हूँ कि तुम्हारा मित्र बनाने का तरीका विसंगतिपूर्ण तथा पक्षपात पूर्ण है | दो मनुष्यों का उदाहरण लो | मान लो एक मनुष्य ने तुमसे मित्रता की इच्छा तब जताई जब हम छोटे थे | तुम बचपन में उसके मित्र बन गए | दूसरा मनुष्य वहां उस झोपडी में रह रहा है | मान लो कि उस मनुष्य की आत्मा में भी तुमसे मित्रता करने की उतनी ही या उससे भी ज्यादा गहरी इच्छा है | तुम उसे मित्र तो बना लोगे लेकिन वह मित्रता बचपन की मित्रता जैसी गाढ़ नहीं हो सकती | अतः , दो मनुष्यों ने तुमसे मित्रता की समान इच्छा की लेकिन एक को तो तुम्हारी बचपन की मित्रता नसीब हुई लेकिन दुसरे को जवानी की मित्रता जो उतनी गहरी नहीं होती | एक ही इच्छा अलग अलग समय पर प्रकट की गई तो तुमने दो अलग अलग स्तर की मित्रता प्रदान की | क्या यह पक्षपात नहीं है ? मुझे लगता है कि तुम्हारा अर्जुन और दुर्योधन के बीच का पक्षपात भी इसी कारण से है | अर्जुन ने तुमसे मित्रता की इच्छा दुर्योधन से पहले प्रकट की इसलिए तुम्हारा उसके प्रति अधिक प्रेम है |”
“भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया – “दाऊ , मेरे लिए समय मायने नहीं रखता | अगर इस झोपडी में रहने वाला मनुष्य अपनी आत्मा से मेरी बाल्य मित्रता पाने की इच्छा रखता है तो मैं उसका बाल मित्र अवश्य बनूँगा |”
“बलराम जोर से हंस दिए – “कान्हा , तुम्हे अहसास भी है तुमने अभी अभी क्या कहा? तुम अब बचपन के मित्र कैसे बन सकते हो ? तुम अब बच्चे नहीं हो | तुम स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि इस बहस में मैं विजयी रहा | क्या अब हम रथ को आगे बढ़ाएं और चले?”
“रथ धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा | बलराम संतुष्ट थे कि उन्होंने श्रीकृष्ण जी के साथ बहस जीती थी , जो कि बहुत दुर्लभ बात थी | श्री कृष्ण जी मुस्कुरा रहे थे क्योंकि वे जानते थे कि बहस अभी ख़त्म नहीं हुई थी |
“कृष्ण जी ने रथ पुनः रोक लिया | वे चपलतापूर्वक बोले – “दाऊ , मुझे प्यास लगी है |”
“बलराम बोले – “द्वारका अब बहुत दूर नहीं है | चलो जल्दी से पहुँचते हैं |”
“लेकिन कृष्ण जी अब तक रथ से उतर चुके थे | वे उस झोपडी की ओर बढ़ने लगे जिसके बारे में वे बात कर रहे थे | बलराम रथ में ही रहे | वे जानते थे कि कृष्ण जी की अचानक लगी प्यास का कोई न कोई उद्धेश्य अवश्य था |
“एक दुबली महिला ने झोपडी में कृष्ण जी का स्वागत किया | वह बोली – “मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा कि द्वारका के राजशाह मेरी झोपडी में पधारे हैं | हे श्री कृष्ण , मेरे पति आपकी महिमा का हमेशा गुणगान करते रहते हैं | वे यहाँ नहीं हैं ; अगर वे यहाँ होते तो वे इस समय संसार के सबसे खुश व्यक्ति होते |”
“कृष्ण जी बोले – “देवी , मेरी भी इच्छा है कि मैं सुदामा से मिलता |”
“उसे आश्चर्य हुआ कि भगवान् कृष्ण उसके पति का नाम जानते थे | उसकी आँखे और मुंह आश्चर्य में खुले के खुले रह गए | वह एक भी शब्द नहीं बोल सकी |
“कृष्ण जी ने चपलता से कहा – “देवी, आप आश्चर्यचकित क्यों है ? क्या उसने बताया नहीं कि वो मेरा बचपन का मित्र है?”
“सुदामा की पत्नी बोली – “हे श्री कृष्ण , मैंने आपकी चपलता के किस्से अपने पति से बहुत सुने हैं | लेकिन मैं भीख मांगती हूँ , कृपा ऐसा मजाक हमारे साथ न करें | हम तो गरीब ब्राह्मण हैं जो तपस्यापूर्वक जीवन जी रहे हैं | मेरे पति आपके बाल सखा कैसे हो सकते हैं ?”
“कृष्ण जी बोले – “देवी , सुदामा आपको मेरे बचपन के किस्से सुनाता है | है ना? जरा सोचो , अगर वह मेरा बाल मित्र नहीं है तो वह मेरे बचपन की कहानिया कैसे जानता है?”
“सुदामा की पत्नी ने उत्तर दिया – “हे श्री कृष्ण , आपके बचपन की कहानिया तो हर जगह मशहूर हैं | आपके यशस्वी बालपन के बारे में कौन नहीं जानता |”
“कृष्ण जी बोले – “अगर आपने पहले से ही मेरे बचपन की कहानिया सुन रखी हैं तो जब सुदामा वे कहानिया रोज सुनाता है तो इतनी तल्लीनता से कैसे सुनती हो? तुम्हे यह क्यों नहीं लगता कि तुमने वह कहानी पहले से सुन रखी हैं ? इसका कारण यह है कि सुदामा उन कहानियों की हरेक बारीकियां सुनाता है | जिसने मुझे नजदीक से देखा हो वही मनुष्य इतनी बारीकी से उन कहानियों को सुना सकता है | जब वह घर आये तो उससे पूछना कि उसे मेरे बारे में इतना सब कैसे मालुम है ? तब आपको पता चलेगा कि वह मेरा बचपन का मित्र है | उसे बताना कि मैं उससे मिलने आया था | मेरी अपने मित्र से मिलने की तीव्र इच्छा है | अगर वह मुझसे मिलने द्वारका आ सके तो मैं स्वयं को भाग्यशाली समझूंगा |”
“हे मातंगों , यह है मेरे प्रभु श्रीहरी की महानता | अगर आप उनसे गहराई से प्रेम करे तो आप उनके बारे में इतना सब कुछ जान सकते हैं जो किसी ओर को नहीं पता | सुदामा वास्तव में उनके बाल मित्र नहीं थे | लेकिन वे प्रभु से इतना प्रेम करने लगे थे कि कृष्ण जी ने अपना बालपन उनको प्रकट करना शुरू कर दिया | सुदामा उनको इतनी नजदीकी से जानने लगे थे जितना उनके वास्तविक बाल मित्र भी नहीं जानते थे | इस कहानी के अगले भाग में आप जानेंगे कि कैसे सुदामा कृष्ण जी के वास्तविक बाल मित्र बन गए | कृष्ण जी ने अपने बचपन में सुदामा को जगह देने के लिए अपना भूतकाल परिवर्तित कर लिया | इसको ध्यान से सुनना |
“कृष्ण जी सुदामा की पत्नी द्वारा दिए गए जल को ग्रहण करके झोपडी से बाहर आ गए | बलराम रथ में बैठे बैठे उनका इन्तजार कर रहे थे | रथ में चढ़ने के बाद कृष्ण जी बोले – “दाऊ , आप महान हो | आपको ये पता था , है ना ? आपने इस झोपडी के पास आकर बचपन के मित्रो के बारे में वार्ता छेड़ दी और देखो , इस झोपडी में सच में ही हमारा एक बचपन का मित्र मिल गया | आपकी दूरदृष्टि की मैं दाद देता हूँ |”
“रथ पुनः चलने लगा था | बलराम बोले – “हमारा बाल मित्र इस झोपडी में? तुम मजाक कर रहे हो ना?”
“कृष्ण जी बोले – “नहीं दाऊ , मजाक नहीं कर रहा | मेरा बालमित्र सुदामा रहता है यहां | हमारा बालमित्र सुदामा |”
“”कान्हा , सुदामा नामक हमारा कोई मित्र नहीं है | झूठ बोलना तुम्हारी आदत बन गई है | तुम पूरे विश्वास के साथ और मासूम चेहरे के साथ झूठ ऐसे बोलते हो कि वह सत्य लगे |” बलराम क्रोधपूर्वक बोले |
“भगवान् कृष्ण तब तक शांत रहे जब तक कि वे द्वारका नहीं पहुँच गए | नगर के द्वार पर कृष्ण जी ने द्वारपालों को निर्देश दिया – “हे द्वारका के महान द्वारपालों, मेरे बाल मित्र सुदामा मुझे मिलने आयेंगे | जब भी वे आये मुझे तुरंत सूचित कर देना |”
“बलराम ने कृष्ण जी की ओर आश्चर्य से देखा और कहा – “हमारा सुदामा नाम का कोई बालमित्र है ही नहीं तो वो आएगा कहाँ से?”
“कृष्ण जी मुस्कुरा दिए और विषय को भटका दिया |
“उधर जब सुदामा अपनी झोपडी में वापिस आये तो उनकी पत्नी ने पुछा – “आप कृष्ण जी की बचपन की कहानियां इतनी बारीकी से बताते हैं | आपको वह सब कैसे मालुम है जो किसी ओर को मालुम नहीं ?”
“सुदामा ने इस बारे में पहले कभी नहीं सोचा था | वे बोले – “मुझे नहीं मालुम कैसे ... मुझे बस पता है | यह सब मेरे हृदय से अपने आप आता है |”
“वह बोली – “श्री कृष्ण जी यहाँ पधारे थे | वे आपको अपना बालमित्र बता रहे थे |”
“सुदामा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | वे बोले – “हे नादान . यह तो कृष्ण जी की महानता है कि उन्होंने मुझे मित्र कहकर बुलाया और वे यहाँ पधारे|”
“वह बोली – “स्वामी , वे ऐसा मात्र सम्मान से नहीं कह रहे थे | वे कह रहे थे कि आप वास्तव में उनके बाल सखा हैं | उन्होंने आपको द्वारका आने का निमंत्रण दिया है | वे बोले कि वे अपने आपको भाग्यशाली समझेंगे अगर आप उनसे मिलने जाएँ |”
“सुदामा बोले – “हे नादान, श्री कृष्ण जी के शब्दों को समझने की कोशिश मत करो | हम सामान्य आत्माओं को अपने सीमित मस्तिष्क से उनके शब्दों का अर्थ लगाने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए | मैं अभी द्वारका जाऊँगा | मैं अपने कृष्ण जी से मिलने के लिए ओर इन्तजार नहीं कर सकता |”
“सुदामा की पत्नी ने कुछ चावल से बना अल्पाहार एक पोटली में बाँध दिया क्योंकि यह परंपरा थी की यात्री मेहमान मेजबान को कुछ प्रेमपूर्वक भेंट करे | जब सुदामा द्वारका के द्वार पर पहुंचे , श्री कृष्ण प्रभु को सूचित किया गया |
“कृष्ण जी स्वयं सुदामा को लेने पहुंचे | उनके इस भाव प्रदर्शन को देखकर सभी ऐसी बाते करने लगे – “यह महान आत्मा कौन है जिसको श्री कृष्ण जी इतना सम्मान दे रहे हैं ?”
“सुदामा अचानक भावना शून्य हो गए थे | वे ज्ञानातीत्व अवस्था में थे | उनके पास बोलने के लिए मात्र एक शब्द भी नहीं था |
“जब वे महल में पहुंचे तो कृष्ण प्रभु ने सुदामा के पैर धोये | द्वारका में यह रीति थी कि जैसे ही मेहमान पहुँचता था , मेजबान सबसे पहले उसके पैर धोते थे | इस तरह , मेहमान के पैरों से मिटटी धुल जाती थी और मेजबान की आत्मा से अहम् की भावना धुल जाती थी | लेकिन सुदामा जी के प्रकरण में न केवल उनके पैरों की मिटटी बल्कि उनका भूतकाल भी धुल रहा था | कृष्ण जी सुदामा के भूतकाल में अपने लिए स्थान तराश रहे थे |
“हे मातंगो , कृष्ण भगवान् ने न केवल सुदामा बल्कि उसी अनुरूप पूरे विश्व का भूतकाल बदल दिया | जब वे सुदामा को वापिस द्वारका के द्वार पर छोड़ने आये , सभी आपस में बात कर रहे थे | लेकिन अब बातचीत ‘यह महान आत्मा कौन है जिसे कृष्ण जी ने इतना सम्मान दिया है’ से बदलकर ‘यह सुदामा है कृष्ण जी का बाल सखा’ हो गई थी | अर्थात , कृष्ण – सुदामा से सम्बंधित सभी लोगो की स्मृति बदल दी गई थी |
“न केवल स्मृतियाँ , हर चीज उसी अनुरूप बदल गई थी | उदाहरणतः जहाँ पर सुदामा की झोपडी थी , अब वहां एक भव्य महल था | इसे कहते हैं “पूर्ण परिवर्तन” | ‘पूर्ण परिवर्तन’ में पूरा विश्व समान अनुपात में बदल जाता है | हम ऐसे परिवर्तन को महसूस नहीं कर सकते | हम केवल अपने आस पास के ‘सापेक्ष परिवर्तन’ ही महसूस कर सकते हैं | इसी को कहते हैं ‘सापेक्षता का रहस्य’ |
“कुछ दिन बाद कृष्ण व बलराम राजनयिक काम से पुनः द्वारका से बाहर जा रहे थे | वे सुदामा के महल के पास से गुजरे | कृष्ण जी बोले – “दाऊ , क्या आपको याद है कि यहाँ कुछ दिन पहले तक एक झोपडी थी ?”
“बलराम का भूतकाल भी बदल दिया गया था | उन्होंने उत्तर दिया – “कैसी बाते कर रहे हो कान्हा? क्या तुम्हे पता नहीं कि यह हमारे मित्र सुदामा का महल है? यह यहाँ तब से है जब से हमने द्वारका का निर्माण किया है |”
“कृष्ण जी ने रथ रोक लिया और एक राहगीर से पुछा – “हे ज्ञानी पुरुष , यह महल यहाँ पर कब से है? यहाँ पर एक झोपडी हुआ करती थी , है ना?”
“राहगीर ने उत्तर दिया – “हे द्वारका के राजशाहो , आप अवश्य मजाक कर रहे हैं | यह महल उतना ही पुराना है जितनी कि द्वारका की स्वर्णनगरी | जो मनुष्य यहाँ रहता है वह सुदामा नाम का ब्राहमण है | कहा जाता है कि सुदामा जी के द्वारका के राजशाहो से करीबी रिश्ते हैं | वे आपके बाल सखा बताये जाते हैं |”
“कृष्ण जी मुस्कुराये और राहगीर को धन्यवाद दिया | रथ पुनः चल पड़ा | उन्होंने बलराम से कहा – “दाऊ , क्या आपको याद नहीं कि हमारी इस स्थान पर एक बहस हुई थी | आपने कहा था कि मैं अर्जुन से इसलिए अधिक प्यार करता हूँ क्योंकि वह दुर्योधन से पहले मेरा मित्र बन गया था | आपने कहा था कि अगर अभी कोई मुझसे मित्र बनने की गहरी इच्छा प्रकट करे , तो वह मित्रता बाल मित्रता जितनी प्रगाढ़ नहीं हो सकती |”
“बलराम परेशान होकर बोले – “कान्हा , हाँ हमारी बहस हुई थी और मैंने वो बहस जीती थी | इस उम्र में बाल सखा कैसे बन सकता है? हमारा बचपन कब का बीत चूका है |”
“”लेकिन दाऊ , मैंने इस उम्र में भी एक बाल सखा बना लिया | कुछ दिन पहले इस महल के स्थान पर एक झोपडी थी | सुदामा नामक एक ब्राहमण उसमे रहा करता था | अब सुदामा हमारा बाल सखा है |”
“बलराम क्रोधित स्वर में बोले – “कान्हा , ऐसी बेतुकी बाते करके मुझे परेशान करने में तुम्हे क्या सुख मिलता है? सुदामा हमारा बाल सखा है अर्थात वह बचपन से हमारा मित्र है | और तुम कह रहे हो कि वह कुछ दिन पहले तक हमसे पूर्णतः अजनबी था ? तुम कभी कभी ऐसी बेतुकी बाते मुझे परेशान करने के लिए करते हो , है ना?”
“हे मातंगो , क्या अब आपको सापेक्षता का रहस्य समझ में आया? जब कोई सापेक्ष परिवर्तन होता है तो हम सबको नजर आता है | लेकिन जब कोई पूर्ण परिवर्तन होता है , तो हम उसे महसूस नहीं करते क्योंकि पूर्ण परिवर्तन में सब कुछ समान अनुपात में बदलता है |
“हे मातंगो , इस लीला के पीछे कृष्ण जी का एक उद्देश्य ज्ञान अभिलाषियों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करना था जिससे की वे ‘सापेक्षता का रहस्य’ समझ सके , जिसे समझना अन्यथा अति कठिन है | सभी गुरु परम्पराओं में कृष्ण-सुदामा की यह लीला पाठ्यक्रम का एक विशेष भाग रही है | इसलिए मैंने भी आपको यह लीला सुनाई ताकि आप सापेक्षता का रहस्य समझ सको |
“हे मातंगो , चरणपूजा के इस सत्र की यजमान जानकिरुपा ने अपने पारिवारिक रत्न वापिस पाने की इच्छा जाहिर की थी | मैं अब यह इच्छा “पूर्ण परिवर्तन” के माध्यम से पूरी करने जा रहा हूँ |” हनुमान जी ने मातंगो की सभा को अवगत कराया |
वे खड़े हो गए , अपनी आँखें बंद की , और गहन ध्यान शुरू किया | मातंगों ने उनको धीरे धीरे अंतर्ध्यान होते देखा जब तक कि वे पूर्णतः ओझल नहीं हो गए | जब वे पुनः प्रकट हुए मातंगो ने महसूस किया जैसे कि वे सब किसी ध्यान-निद्रा से अचानक जागे हों |
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , अब मैं आपको एक पूर्ण सत्य बताने जा रहा हूँ जिस पर आप विश्वास नहीं करोगे | 41 साल पहले मैं आप लोगो से मिलने आया था |उसके कुछ महीनो बाद आपको बाहरी समाज की नजर से बचने के लिए सप्तकन्या पर्वत छोड़ना पड़ा था | उस प्रक्रिया में बसंत के परिवार ने अपने रत्न गवां दिए | और अब मैं पुनः आप लोगो से मिलने आया हूँ | यह चरणपूजा का पहला दिन है | इस सत्र में मैंने अभी अभी बसंत के परिवार के वे रत्न वापिस ला दिया हैं | बसंत के पिता की आत्मा ने अंततः मुक्ति प्राप्त कर ली है | हे जानकीरूपा , हे बसन्त , जब आप अपने घर जाओगे तो वे रत्न अपनी झोपडी में पाओगे |”
मातंग हनुमान जी के ये शब्द सुनकर अचंभित थे | जानकीरूपा को कुछ भी कहने का साहस नहीं हो रहा था | बाबा मातंग खड़े हो गए और विनम्रता से बोले – “हे शक्तिशाली हनुमान , हमें आपकी लीला समझ में नहीं आई | आपने जो कहा वह हमारी सीमित बुद्धि की समझ से बाहर है | यह सच है कि वर्षो पहले बसंत के परिवार ने अपने रत्न गवां दिए थे | लेकिन फिर हमें वे रत्न वही मिल गए थे जहाँ खोये थे | बसंत के पिता भी शांति से मृत्यु को प्राप्त हुए थे और उन्हें मोक्ष मिल गया था | मुझे समझ नहीं आया कि इस घटनाक्रम का आपका ब्यौरा हमारे ब्योरे से अलग क्यों है ?”
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , मैंने एक पूर्ण परिवर्तन किया है | आप सभी का भूतकाल बदल दिया गया है | पूर्ण सत्य मस्तिष्क से अनुभव नहीं किया जा सकता | इस सत्र में अब तक जो घटनाएं हुई है अगर आप उनका ध्यान करोगे तो आपकी आत्माओं को उन रत्नों का पूर्ण सत्य मालुम होगा |”
एक छोटे से अंतराल के पश्चात् हनुमान जी ने कहा – “आपके मस्तिष्क यह मानते हैं कि वे रत्न आपके पास पहले से ही थे | लेकिन पूर्ण सत्य यह है कि वो रत्न मैं “पूर्ण परिवर्तन” करके अभी अभी वापिस लाया हूँ | इसीलिए मैं कहता हूँ , आपके पास जो कुछ भी है उसके लिए आपको हमेशा आभारी होना चहिये | अगर आपका मन यह कहता है कि आपके पास वे रत्न पहले से ही थे , तो भी आपको उन रत्नों के लिए आभारी होना चाहिए क्योंकि ‘पूर्ण सत्य’ कुछ ओर हो सकता है |



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