भारतीय चावल का इतिहास......
चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता, ईजिप्ट की सभ्यता भी इसका जिक्र नहीं करती। पश्चिम की ओर पहली बार इसे सिकंदर लेकर गया और अरस्तु ने इसका जिक्र “ओरीज़ोन” नाम से किया है। नील की घाटी में तो पहली बार 639 AD के लगभग इसकी खेती का जिक्र मिलता है। ध्यान देने लायक है कि पश्चिम में डिस्कवरी और इन्वेंशन दो अलग अलग शब्द हैं और दोनों काम की मान्यता है। दूसरी तरफ भारत में अविष्कार की महत्ता तो है, लेकिन अगर पहले से पता नहीं था और किसी ने सिर्फ ढूंढ निकाला हो तो खोज के लिए कोई विशेष सम्मान नहीं मिलता।

इस वजह से पश्चिमी देशों के वास्को डी गामा और कोलंबस जैसों को समुद्री रास्ते ढूँढने के लिए अविष्कारक के बदले खोजी की मान्यता मिलती है लेकिन भारत जिसने पूरी दुनियां को चावल की खेती सिखाई उसे स्वीकारने में भारतीय लोगों को ही हिचक होने लगती है।

कैंसर के जिक्र के साथ जब पंजाब का जिक्र किया था तो यह नहीं बताया कि पंजाब में सिर्फ भारत का 17% गेहूं ही नहीं उपजता, अपितु 11% धान की भी पैदावार भी यहीं से होती है।
भारतीय संस्कृति में खेत से धान आता है, बाजार से चावल लाते हैं और पकाकर भात परोसा जाता है। शादियों में दुल्हन अपने पीछे परिवार पर, धान छिड़कती हुई विदा होती है जो प्रतीकात्मक रूप से कहता है तुम धान की तरह ही एकजुट रहना, टूटना मत। तुलसी के पत्ते भले गणेश जी की पूजा से हटाने पड़ें, लेकिन किसी भी पूजा में से अक्षत (चावल) हटाना, तांत्रिक विधानों में भी नामुमकिन सा दिखेगा।
विश्व भर में धान जंगली रूप में उगता था, लेकिन इसकी खेती का काम भारत से ही शुरू हुआ। अफ्रीका में भी धान की खेती जावा के रास्ते करीब 3500 साल पहले पहुंची। अमेरिका-रूस वगैरह के लिए तो ये 1400-1700 के लगभग हाल की ही चीज़ है।

*जापान में यह तीन हज़ार साल पहले शायद कोरिया या चीन के रास्ते पहुँच गया था। वो संस्कृति को महत्व देते हैं, भारत की तरह नकारते नहीं, इसलिए उनका नए साल का निशान धान के पुआल से बांटी रस्सी होती है। धान की खेती के सदियों पुराने प्रमाण क्यों मिल जाते हैं ? क्योंकि इसे सड़ाने के लिए मिट्टी-पानी-हवा तीनों चाहिए।*
हड़प्पा (लोथल और रंगपुर, गुजरात) जैसी सभ्यताओं के युग से भी दबे धान खुदाई में निकल आये हैं।
*नाम के महत्व पर ध्यान देने से भी इतिहास खुलता है। जैसे चावल के लिए लैटिन शब्द ओरीज़ा (Oryza) और अंग्रेजी शब्द राइस (Rice) दोनों तमिल शब्द “अरिसी” से निकलते हैं। अरब व्यापारी जब अरिसी अपने साथ ले गए तो उसे अल-रूज़ और अररुज़ बना दिया। यही स्पेनिश में पहुंचते पहुँचते अर्रोज़ हो गया और ग्रीक में ओरिज़ा बन गया। इटालियन में यह रिसो (Riso), in हो गया, फ़्रांसिसी में रिज़ (Riz) और लगभग ऐसा ही जर्मन में रेइज़ (Reis) बन गया। संस्कृत में धान को व्रीहि कहते हैं , यह तेलगु में जाकर वारी हुआ, अफ्रीका के पूर्वी हिस्सों में इसे वैरी (Vary) बुलाया जाता है। फारसी (ईरान की भाषा) में जो ब्रिन्ज (Brinz) कहा जाता है वो भी इसी से आया है।*
साठ दिन में पकने वाला साठी चावल इतने समय से भारत में महत्वपूर्ण है कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी उसका जिक्र आता है। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन भी धान से आता है और बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के समय भी सुजाता के खीर खिलाने का जिक्र आता है। एक किस्सा यह भी है कि गौतम बुद्ध के एक शिष्य को किसी साधू का पता चला जो अपने तलवों पर कोई लेप लगाते, और लेप लगते ही हवा में उड़कर गायब हो जाते। बुद्ध के शिष्य नागार्जुन भी उनके पास जा पहुंचे और शिष्य बनकर चोरी छिपे यह विधि सीखने लगे। एक दिन उन्होंने चुपके से साधू की गैरमौजूदगी में लेप बनाने की कोशिश शुरू कर दी।
लेप तैयार हुआ तो तलवों पर लगाया और उड़ चले, लेकिन उड़ते ही वो गायब होने के बदले जमीन पर आ गिरे। चोट लगी लेकिन नागार्जुन ने पुनः प्रयास किया। गुरु जब तक वापस आते तब तक कई बार गिरकर नागार्जुन खूब खरोंच और नील पड़वा चुके थे। साधू ने लौटकर उन्हें इस हाल में देखा तो घबराते हुए पूछा कि ये क्या हुआ ? नागार्जुन ने शर्मिंदा होते आने का असली कारण और अपनी चोरी बताई। साधू ने उनका लेप सूंघकर देखा और हंसकर कहा बेटा बाकी सब तुमने ठीक किया है, बस इसमें साठी चावल नहीं मिलाये थे , मिलाते तो लेप बिलकुल सही बन जाता !
सिर्फ किस्से-कहानियों में धान-चावल नहीं है, धान-चावल की नस्लों को सहेजने के लिए एक जीन बैंक भी है। अपनी ही संस्कृति पर शर्मिंदा होते भारत में नहीं है यह इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट (IRRI) फिलीपीन्स में भी है। फिलीपींस का ही बनाउ (Banaue) चावल की खेती के लिए आठवें आश्चर्य की तरह देखा जाता है। यहाँ 26000 स्वायर किलोमीटर के इलाके में चावल के खेत हैं। यह टेरेस फार्मिंग जैसी जगह है, पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर, कुछ खेत तो समुद्र तल से 3000 फीट की ऊंचाई पर भी हैं। इनमें से कुछ खेत हजारों साल पुराने हैं और सड़ती वनस्पति को लेकर पहाड़ी से बहते पानी से एक ही बार में खेतों में सिंचाई और खाद डालने, दोनों का काम हो जाता है।
इस आठवें अजूबे के साथ नौवां अजूबा यह है कि भारत में जहाँ चावल की खेती 16000 से 19000 साल पुरानी परम्परा होती है, वो अपनी परंपरा को अपना कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ! कृषि पर शर्माने के बदले उसे भी स्वीकारने की जरूरत तो है ही।
*सस्यवेद : भारतीय कृषि विज्ञान*
ऋषियों ने कृषि को हमारी आत्म निर्भरता के लिए बेहद जरुरी बताया है। उन्होंने कृषिकार्य को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास ही नहीं किया बल्कि स्वयं कृषि भी की। आश्रमों के आसपास के क्षेत्र को कृषि के लिए उपयोगी बनाया। यह 'क्षेत्र' ही 'खेत' कहे गए। मिट्टी की प्रकृति काे पहले जाना गया...।
इस खेत की उपज-निपज के रूप में जो कुछ बीज पाये जाते व परिश्रम की धन्यता के फलस्वरूप धान या धान्य कहे गये। यह धन्य करने वाले बीज आज तक भारतीयों के प्रत्येक अनुष्ठान व कर्मकांड के लिए सजने वाले थाल में शोभित होते हैं। चावल अक्षत रूप में है तो यव के जौ या जव के नाम से जाना जाता है। रसरूप गुड़ के साथ धनिया तो पहला प्रसाद ही स्वीकारा गया है। ऋषिधान्य सांवा है जो शायद पहले पहल आहार के योग्य बना और जिसकी पहचान महिलाओं ने पहले की क्योंकि वे आज भी ऋषिपंचमी पर उसकी पूजा करती हैं।
सस्यवेद के इस प्रचार को दानकृत्य की तरह स्वीकार किया गया।
'कृत्यकल्पतरु' में सस्यवेद के दान की महत्ता लिखी गई है। पराशर का जोर कृषि के लिए जो मौसम के अध्ययन पर रहा तो कश्यप ने जल की उपलब्धि वाले इलाकों में खेती के उपाय करने को कहा। शाश्वत मुनि ने भूमिगत स्रोतों की खोज के लिए उचित लक्षणों को 'दकार्गल' नाम से प्रचारित किया। कश्यप ने पेड़ों की शाखाओं को भी द्रुमोत्पादन क्षेत्र के रूप में स्वीकारा और कलम लगाने के प्रयोग किए। कोविदार एेसे ही रोचक सस्यवेद की परंपराएं बना ।
एेसे उपाय लोक के गलि़यारे में बहुत हैं। आपको भी कुछ तो याद होंगे ही... पारंपरिक बातों को लिखिए ...
कृषि विद्या के संबंध में जो ग्रंथ भारत की निधि रहे हैं, उनमें 'केदारकल्प' का नाम भी कतिपय ग्रंथ सूचियों में मिलता है। कृषि विद्या को हमारे यहां सस्यवेद भी कहा गया है और इस कर्म की महत्ता अनेकत्र मिलती है -
*सुभिक्षं कृषिके नित्यम्।* इससे संबंधित काश्यप, सारस्वत, पराशर आदि के नाम से कुछ ग्रंथ मिलते हैं। जीवन में कृषि कार्य की उपयोगिता, कृषि का माहात्म्य, खेतों व कृषि भूमि के प्रकार, सिंचाई आदि के उपाय, कृषि से संबंधित बैल, हल आदि औजारों का परिचय और उनके प्रयोग, वृक्षायुर्वेद तथा मौसम विज्ञान आदि के बारे में इन ग्रंथों में जानकारी मिलती है । इनमें कृषि से जुडे देवी देवताओं की स्तुतियां भी हो सकती है।
प्रो. ज्यूअल वोजतिला द्वारा संपादित और हंगरी से प्रकाशित History of krishishastra से ज्ञात हुआ कि केदार कल्प नामक एक ग्रंथ भी मिलता है, संभवत: यह बांग्ला में हाेना चाहिए। श्री आर. पी. दास ने 1988 में वृक्षायुर्वेद के संबंध में अपनी एक टिप्पणि में ऐसा लिखा है। प्रो. वोजतिला की सूचना है कि यह संभवत: स्कंदपुराण या नांदिपुराण के कृषि विषय का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रंथ होना चाहिए!

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