।। रामचरितमानस ।। बालकाण्ड - 26 गोस्वामी तुलसीदास
बालकाण्ड - 26
गोस्वामी तुलसीदास
श्री तुलसीदास रचित रामचरितमानस भावार्थ सहित
(भावार्थ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीरामचरितमानस से साभार)
अवतार के हेतु
सोरठा :
* सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥120 ख॥
भावार्थ:-हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था॥120 (ख)॥
* सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥120 ग॥
भावार्थ:-वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥120(ग)॥
* हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120 घ॥
भावार्थ:-श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥120 (घ)॥
चौपाई :
* सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥
भावार्थ:-हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)॥1॥
* राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥2॥
भावार्थ:-हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं॥2॥
* तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
भावार्थ:-और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥3॥
चौपाई :
* करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥
भावार्थ:-और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥
दोहा :
* असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
भावार्थ:-वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥121॥
चौपाई :
* सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥
भावार्थ:-उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक से एक बढ़कर विचित्र हैं॥1॥
* जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥2॥
भावार्थ:-हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्री हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥2॥
* बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥3॥
भावार्थ:-उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुड़ाने वाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए॥3॥
* बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥4॥
भावार्थ:-वे युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया॥4॥
दोहा :
* भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥
भावार्थ:-वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतने वाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥122॥
चौपाई :
* मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥
भावार्थ:-भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया॥1॥
* कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥2॥
भावार्थ:-वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं॥2॥
* एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥3॥
भावार्थ:-एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिवजी ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥3॥
* परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥4॥
भावार्थ:-उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करने वाले शिवजी भी उस दैत्य को नहीं जीत सके॥4॥
दोहा :
* छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥
भावार्थ:-प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥123॥
चौपाई :
* तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥
भावार्थ:-लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने युद्ध में मारकर परमपद दिया॥1॥
* एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥2॥
भावार्थ:-एक जन्म का कारण यह था, जिससे श्री रामचन्द्रजी ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है॥2॥
* नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥3॥
भावार्थ:-एक बार नारदजी ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं॥3॥
* कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥4॥
भावार्थ:-मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकरजी)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है॥4॥
दोहा :
* बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124 क॥
भावार्थ:-तब महादेवजी ने हँसकर कहा- न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥124 (क)॥
सोरठा :
* कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124 ख॥
भावार्थ:-(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! मैं श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं- मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करने वाले रघुनाथजी को भजो॥124 (ख)॥

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