जय श्री राम जय श्री राम

देश में पहली बार इस क्रांतिकारी ने दिया था 'राइट टू रिकॉल' का आइडिया, दंग रह गए थे गांधी..!


देश में पहली बार इस क्रांतिकारी ने दिया था 'राइट टू रिकॉल' का आइडिया, दंग रह गए थे गांधी..!


सैकड़ों ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिनको इतिहास से निकाल दिया जाए तो जिन बड़े चेहरों को आप जानते हैं, पूजते हैं उनका भी अस्तित्व शायद ही होता। बनारस की सरजमीं से भी एक ऐसा क्रांतिकारी निकला, जिसकी रखी नींव पर भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने क्रांति का परचम लहराया। उनकी लिखी किताब को क्रांतिकारियों ने गीता और बाइबल की तरह माना। वो पहला क्रांतिकारी जिसे एक बार नहीं, बल्कि दो दो बार काला पानी की सजा के लिए अंडमान की सेल्युलर जेल भेजा गया, देश की वो पहली हस्ती जिसने देश में आज से 92 साल पहले राइट टू रिकॉल का आइडिया रखा था। आज उसी सचिन्द्रनाथ सान्याल या सचिन सान्याल को कितने स्कूली बच्चे जानते हैं, कभी पूछकर देखिए।

कहा ये जाता है कि गांधी के आने से पहले और आने के दस साल बाद तक जितनी भी क्रांतिकारी गतिविधियां हुईं, उन सबमें सचिन सान्याल का नाम शामिल था। चाहे वो 1912 में अंग्रेजी वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग पर बम फेंकने का दिल्ली कॉन्सिपिरेसी केस हो, या फिर 1915 की गदर क्रांति या फिर रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खान के साथ काकोरी ट्रेन डकैती का केस हो और या फिर भगत सिंह और आजाद जैसे क्रांतिकारियों को दुनियां के सामने लाने वाली क्रांतिकारी संस्था हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) का गठन।

बचपन से ही सचिन में देशभक्ति का जुनून सर पर सवार था, जो देश को आजाद देखने के लिए उन्हें अंदर से व्याकुल कर रहा था। धर्म की नगरी काशी में पैदा होने से रामायण और गीता जैसे ग्रंथों को उन्होंने बार-बार पढ़ा था। अन्याय के खिलाफ जंग और जुल्म के खिलाफ विद्रोह उनकी आत्मा में भर गया था। उन दिनों बनारस बंगाल के क्रांतिकारियों की शरण स्थली बन गया था। 1909 में अनुशीलन समिति की बनारस शाखा से वो जुड़ गए थे, इन्हीं दिनों उनकी मुलाकात बाघा जतिन और रासबिहारी बोस से हुई। रास बिहारी बोस लगातार बनारस आ रहे थे, इधर, जैसे ही अंग्रेजों ने देश की राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली करने का ऐलान किया, तो रास बिहारी बोस ने दिल्ली में वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग पर बम फेंकने की योजना बना ली।

सचिन सान्याल भी उस योजना का हिस्सा थे, दिल्ली और बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों को भी शामिल किया गया। 1912 में जब वायसराय नई राजधानी दिल्ली में हाथी पर बैठकर घुसा, उसके हाथी पर बम फेंक दिया गया। महावत मारा गया, हाथी और वायसराय घायल हो गए। रास बिहारी कुछ दिनों बाद बनारस भाग आए, और वहीं छुपकर रहे। सचिन सान्याल उन दिनों उनके प्रमुख सहयोगी के तौर पर सारा काम संभालते रहे। पुलिस लॉर्ड हॉर्डिंग बम केस में उनका हाथ साबित नहीं कर पाई। फिर योजना बनी गदर क्रांति की, लंदन, कनाडा और अमेरिका में मौजूद देशभक्तों ने विदेशी मदद के सहारे भारत को आजाद होने का बड़ा प्लान बनाया। शायद आजादी से पहले इतनी बड़ी सशस्त्र क्रांति की योजना पहले कभी नहीं बनी थी।

उत्तर भारत के यूपी, दिल्ली और पंजाब की कमान रास बिहारी बोस और सचिन सान्याल के हाथों में थी, तो बंगाल में बाघा जतिन ने मोर्चा संभाल रखा था। अमेरिका से करतार सिंह सराभा और विष्णुपंत पिंगले जैसे कई क्रांतिकारी मदद के लिए आ चुके थे। योजना थी कि भारत में एक साथ कई सैनिक छावनियों में विद्रोह करवाकर देश आजाद करवाया जाएगा। लेकिन एक गद्दार ने सारी योजना अंग्रेजों को बता दी और काफी कम समय में बहुतों को गिरफ्तार कर लिया गया, करतार सिंह सराभा जैसे क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई, तो बाघा जतिन एक एनकाउंटर में मारे गए। सचिन सान्याल ने रासबिहारी बोस को देश से बाहर जाने के लिए राजी किया और वो रविन्द्रनाथ टैगोर के एक करीबी रिश्तेदार की मदद से जापान निकल गए और वहीं बस गए। बाद में रास बिहारी ने वहां आजाद हिंद फौज की कमान संभाली और उसे सुभाष चंद्र बोस को हैंडओवर की।

अब देश में गिनती के क्रांतिकारी रह गए, प्रथम विश्वयुद्ध के खत्म होने तक और गांधीजी के शुरूआती आंदोलनों के दौरान थोड़ी शांति रही। चम्पारन सत्याग्रह और खिलाफत आंदोलन के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया। अंग्रेज सरकार को गांधीजी के आगे थोड़ा झुकता देखकर कई क्रांतिकारियों ने कांग्रेस का दामन भी थाम लिया था। रामप्रसाद बिस्मिल भी उन्हीं में से थे। असहयोग आंदोलन के दौरान फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना क्रांतिकारी गतिविधियों को दोबारा उभार के लिए बड़ी कारक मानी जाती है।

गोरखपुर के चौरी चौरा में विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने गोलियां बरसा दीं, कई किसान मर गए, गुस्से में किसानों ने थाना फूंक दिया और कुल 22 पुलिस वाले मारे गए। गांधीजी ने फौरन असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। देश का युवा गांधीजी के फैसले से काफी आहत हुआ, राम प्रसाद बिस्मिल की अगुआई में 1922 के गया अधिवेशन में गांधीजी का खुलकर विरोध किया गया और मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने स्वराज पार्टी का ऐलान कर दिया। लेकिन अब युवाओं का शांतिपूर्ण आंदोलनों से भरोसा उठ गया। इंडिया हाउस के लाला हरदयाल भी बिस्मिल के संपर्क में थे। सचिन सान्याल ने बिस्मिल के साथ मिलकर अपने क्रांतिकारी संगठन की योजना बनाई, 1923-24 में इसे मूर्त रूप दिया गया, नाम रखा गया हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए)।

सचिन सान्याल ने इसका मेनीफेस्टो तैयार किया और उसी में दिया गया देश में पहली बार राइट टू रिकॉल का आइडिया, यानी आपके चुने हुए एमएलए या एमपी अगर आपकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते हैं, तो उनका कार्यकाल खत्म होने से पहले ही उनको वोटिंग के जरिए पद से हटाने का अधिकार। एचआरए के मेनीफेस्टो में लिखा था, "In this (new) Republic the electors shall have the right to recall their representatives, if so desired, otherwise the democracy shall become a mockery."।

इस मेनीफेस्टो में सचिन्द्र नाथ सान्याल ने भविष्य के भारत की बहुत खूबसूरत तस्वीर बनाई थी। 3 अक्टूबर 1924 के दिन कानपुर में सचिन सान्याल की अध्यक्षता में सभी बड़े क्रांतिकारियों की एक मीटिंग बुलाई गई, जिसमें बिस्मिल को शाहजहांपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट कॉर्डीनेटर के पद के साथ साथ आर्म्स डिवीजन का चीफ बना दिया गया, साथ ही यूनाइटेड प्रॉविंस (आगरा और अवध) के संगठक की भी। सचिन सान्याल को एचआरए का नेशनल ऑर्गेनाइजर बनाया गया और जोगेश चंद्र चटर्जी को अनुशीलन समिति का कॉर्डिनेटर बनाया गया।

इसी मीटिंग में एचआरए का नाम तय किया गया और इसी मीटिंग में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह भगवती चरण बोहरा और बटुकेश्वर दत्त जैसे कई युवा चेहरों को एचआरए में शामिल किया गया। क्रांतिकारी गतिविधियों के मामले में सचिन सान्याल को इन सभी क्रांतिकारियों का मेंटर माना जाता है, वैसे भी बाघा जतिन की मौत और रास बिहारी बोस के जापान चले जाने के बाद सचिन सान्याल ही सबसे वरिष्ठ क्रांतिकारी थे। इस मीटिंग के बाद जोगेश और सचिन बंगाल में एचआरए की ज़डें मजबूत करने निकल गए।

भगत सिंह उन दिनों लाहौर से सीधे कानपुर आए थे, 6 महीने यहीं रहे, घरवाले उनकी शादी करवाना चाहते थे। कानपुर में वो पिता के मित्र गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले, जो ‘प्रताप’ नाम का अखबार निकालते थे। वहीं से उनको एचआरए के बारे में पता चला, सभी क्रांतिकारी साथियों से मुलाकात हुई। सचिन सान्याल ने जो पार्टी का मेनीफेस्टो लिखा था, उसको नाम दिया गया ‘द रिवोल्यूशनरी’ और सभी युवा क्रांतिकारियों को काम दिया गया कि इस मेनीफेस्टो को ज्यादा से ज्यादा शहरो में युवाओं के बीच पहुंचाया जाए। इसे पम्फलेट के तौर पर किसी विजय कुमार के नाम से छापा गया और इसमें गांधी जी की अहिंसावादी नीतियों की आलोचना करते हुए युवाओं से क्रांति का आह्वान किया गया था। इसी पेम्फलेट को बांटते वक्त बांकुरा में सचिन को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दो साल जेल की सजा दी गई।

उसके बाद एचआरए ने योजना बनाई काकोरी ट्रेन डकैती की। इस केस में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा हुई और सचिन सान्याल समेत कई क्रांतिकारियों को काला पानी की सजा हुई। चंद्रशेखर आजाद और कुंदन लाल गुप्ता जैसे क्रांतिकारियों को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पाई तो भगत सिंह को काकोरी केस में शामिल ही नहीं किया गया था, उनको लाहौर में एचआरए की टीम खड़ा करने के लिए लाहौर भेज दिया गया था।

काकोरी केस के बाद बिस्मिल को फांसी और सचिन सान्याल के जेल चले जाने के बाद एक बार फिर क्रांतिकारी आंदोलन सुप्तावस्था में चला गया, जिसे बाद में आजाद, भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा, बटुकेश्वर दत्त और सुखदेव ने दूसरा जीवन दिया। दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एचआरए की मीटिंग बुलाई गई और एचआरए में सोशलिस्ट शब्द जोड़कर उसका नाम हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन यानी एचआरएसए कर दिया गया, आजाद को उसका अध्यक्ष बना दिया गया।

इधर सचिन सान्याल को अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया। सचिन ने जेल में ही अपनी किताब ‘बंदी जीवन’ लिखनी शुरू कर दी। किसी तरह किताब जब छपकर आई तो क्रांतिकारियों को मानो संजीवनी मिल गई, युवाओं के लिए वो गीता और बाइबिल बन गई। लाखों युवाओं के मन पर उस किताब ने अपनी छाप छोड़ी। उसी किताब में उनकी धार्मिक प्रवृत्ति के होने का पता चलता है। हालांकि भगत सिंह ने अपने लेख ‘Why I am athiest’ में सचिन सान्याल के धार्मिक होने का जिक्र किया है, वेदों और उपनिषदों के बारे में उनकी आस्था के बारे में लिखा है। उस वक्त के लोगों के बीच चर्चा थी कि सचिन भगत सिंह के लेख का जवाब देते अगर वो जेल में ना होते और इसे पढ़ पाते। ये अलग बाद है कि सचिन के भाई जितेन्द्र सान्याल ने ही 1931 में भगत सिंह की पहली जीवनी लिखी थी।

गांधीजी से यूं तो कई लोगों ने विरोध जताया, लेकिन बाकायदा उनके विचारों का लिखकर विरोध और उसके बाद गांधीजी के जवाब तीन ही लोगों के चर्चा में रहे। इनमें से एक खुद सचिन सान्याल थे, दूसरे उनके कनिष्ठ सहयोगी मन्मथनाथ गुप्त थे, काकोरी कांड में जिनकी गोली से गलती से हुई एक मौत के चलते सारे क्रांतिकारी गिरफ्त में आ गए थे, तीसरे सचिन के शिष्य भगवती चरण बोहरा थे, जो गांधी को लिखे अपने पत्र ‘फिलॉसफी ऑफ बम’ के चलते चर्चा में आए थे। असहयोग आंदोलन के वापस लेने से आहत सचिन सान्याल ने गांधी जी को लिखा था, “आप बताते हैं कि अहिंसा हिंदुत्व की अवधारणा है, लेकिन हमारे ऋषि मुनियों ने अंत तक अहिंसा की कोई बात नहीं की है, आपद काल में या फिर आखिरी विकल्प के तौर पर विश्वामित्र से लेकर परशुराम तक ने शस्त्र उठाए हैं।

गीता में भी युद्ध करने का संदेश है। आप कहते हैं कि हम उनसे मुकाबला नहीं कर पाएंगे, क्योंकि वो ताकतवर हैं तो क्या मुट्ठी भर अंग्रेज हम पर हथियारों के बल पर और बिना हमारी सहमति के शासन करते रहें? हम हथियार उठाएंगे तभी मुकाबला हो पाएगा”। गांधीजी ने भी सचिन को लिखकर जवाब भेजा कि “अहिंसा के साथ कमजोर व्यक्ति भी लड़ सकता है और इससे वो आम जन की लड़ाई बन जाती है, जबकि हथियार के साथ लड़ने वाले बहुत कम हैं, और उनके किए का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है।“

सान्याल को बाकी काकोरी आरोपियों के साथ 1937 में जेल से छोड़ दिया गया, लेकिन वो कहां मानने वाले थे, उस पर उनकी किताब ‘बंदी जीवन’ के चलते वो युवाओं की प्रेरणा बन चुके थे। सरकार उन पर नजर रख रही थी, जैसे ही उन्हें सान्याल के ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के पुख्ता सुबूत मिले, उनको ना केवल फिर से गिरफ्तार कर लिया गया बल्कि उनके वाराणसी वाले घर की कुर्की कर दी गई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उनके प्रोटेस्ट में शामिल होने से सरकार थी नाराज। परिवार पर तो मानो आफत आ गई। सचिन को फिर से अंडमान जेल भेज दिया गया। उनके बेटे और पत्नी को सचिन के साथ समय बिताने का मौका ही नहीं मिला, देश पर उन्होंने जीवन कुर्बान कर दिया। हालांकि गिरफ्तारी से पहले वो इतना ज्यादा चर्चा में थे कि 1938 में सुभाष चंद्र बोस ने खुद उनके लखनऊ वाले घर पर जाकर उनसे मुलाकात की थी। अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की योजना को लेकर चर्चा करने आए थे बोस।

दिलचस्प तथ्य ये भी था कि तब तक उनके बाद के क्रांतिकारियों की पीढ़ी यानी भगत सिंह, आजाद, सुखदेव, भगवती चरण बोहरा, मदन लाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान आदि सब मां भारती के लिए अपनी जान गंवा चुके थे और बटुकेश्वर दत्त. वीर सावरकर आदि जेल में थे। अगर सचिन सान्याल गिरफ्तार नहीं होते, खुलेआम प्रदर्शन में हिस्सा ना लेकर फिर युवाओं की फौज खड़ी करते तो शायद कुछ और हालात होते।

लेकिन उनकी दूसरी जेल यात्रा ने उनके मनोबल और स्वास्थ्य दोनों पर असर डाला, आधी जिंदगी जेल में ही गुजर चुकी थी। उनको जेल में टीबी की बीमारी लग गई थी, जो तब तक लाइलाज थी। उनको गंभीर हालत में उन्हें गोरखपुर में टीबी हॉस्पिटल भेजा गया, लेकिन कामयाबी हाथ नहीं लगी, हालत ज्यादा बिगड़ चुकी थी। 1945 की शुरूआत में ही गोरखपुर में उनकी मौत हो गई। वो उस आजाद भारत को अपनी आंखों से देखने का सपना तक ना पूरा कर सके, जिसके भविष्य की तस्वीर उन्होंने ‘द रिवोल्यूशरी’ में यूनाइटेड रिपब्लिक स्टेट्स ऑफ इंडिया के तौर पर बड़े करीने से बनाई थी। कहा जाता है कि उनका जो खानदानी घर ब्रिटिश सरकार ने कुर्क किया था, वो आज तक उनके परिवार को वापस नहीं मिल पाया।


No comments

Theme images by sololos. Powered by Blogger.