जय श्री राम जय श्री राम

नटराज' भगवान शिव के प्रदोष-नृत्य की पावन कथा.....

नटराज' भगवान शिव के प्रदोष-नृत्य की पावन कथा......

भगवान शिव के तांडव के दो स्वरूप है। पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव तथा दूसरा आनंद-प्रदान करने वाला आनंद तांडव। ज़्यादातर लोग तांडव शब्द का अर्थ शिव के क्रोध का स्वरूप मानते है। रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र,आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज कहलाए जाते है। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टि का विनाश हो जाता है। 

 भगवान शिव के अद्भुत तांडव नृत्य की पवित्र कथा में ‘नटराज’ भगवान शिव के तांडव-नृत्य में सम्मिलित होने के लिए सभी देवगण कैलाश पर्वत पर उपस्थित हुए। जगत जननी माता गौरी वहाॅं दिव्य रत्नसिंहासन पर विराजमान होकर तांडव का आयोजन कराने के लिए उपस्थित थी। देवर्षि नारद भी उस नृत्य कार्यक्रम में शामिल होने के लिए लोकों का परिभ्रमण करते हुए वहाॅं आ पहुॅंचे थे। थोड़ी देर में भगवान शिव ने भाव-विभोर होकर तांडव-नृत्य का प्रारंभ कर दिया। समस्त देवगण और देवियाॅं भी उस नृत्य में सहयोगी बनकर विभिन्न प्रकार के वाद्य बजाने लगे। वीणावादिनी माॅं सरस्वती वीणा-वादन करने लगी, विष्णु भगवान मृदंग बजाने लगे, देवराज इंद्र बंशी बजाने लगे, ब्रह्माजी हाथ से ताल देने लगे और लक्ष्मी जी गायन करने लगी। अन्य देवगण, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, उरग, पन्नग, सिद्ध, अप्सराएं, विद्याधर आदि भाव-विभोर होकर भगवान शिव के आगे नदमस्तक हो गए। भगवान शिव ने उस प्रदोष काल में उन समस्त दिव्य विभूतियों के समक्ष अत्यंत अद्भुत, लोक-विस्मयकारी तांडव-नृत्य का प्रदर्शन किया। भगवान्‌ शिव ने उस प्रदोष काल में उन समस्त दिव्य विभूतियों के समक्ष अत्यंत अद्भुत, लोक-विस्मयकारी तांडव-नृत्य का प्रदर्शन किया।

 उनके अंग-संचालन-कौशल, मुद्रा-लाघव, चरण, कटि, भुजा, ग्रीवा के उन्मत्त किंतु सुनिश्चित विलोल-हिल्लोल के प्रभाव से सभी के मन और नेत्र दोनों एकदम अचंचल हो उठे।

 सभी ने नटराज भगवान्‌ शंकरजी के उस नृत्य की सराहना की। भगवती महाकाली तो उन पर अत्यंत ही प्रसन्न हो उठीं। उन्होंने शिवजी से कहा- 'भगवन्‌! आज आपके इस नृत्य से मुझे बड़ा आनंद हुआ है, मैं चाहती हूं कि आप आज मुझसे कोई वर प्राप्त करें।' 

 उनकी बातें सुनकर लोकहितकारी आशुतोष भगवान्‌ शिव ने नारदजी की प्रेरणा से कहा- 'हे देवी ! इस तांडव-नृत्य के जिस आनंद से आप, देवगण तथा अन्य दिव्य योनियों के प्राणी विह्वल हो रहे हैं, उस आनंद से पृथ्वी के सारे प्राणी वंचित रह जाते हैं। हमारे भक्तों को भी यह सुख प्राप्त नहीं हो पाता। अतः आप ऐसा करिए कि पृथ्वी के प्राणियों को भी इसका दर्शन प्राप्त हो सके। किंतु मैं अब तांडव से विरत होकर केवल 'रास' करना चाहता हूं।

 भगवान्‌ शिव की बात सुनकर तत्क्षण भगवती महाकाली ने समस्त देवताओं को विभिन्न रूपों में पृथ्वी पर अवतार लेने का आदेश दिया। स्वयं वह भगवान्‌ श्यामसुंदर श्रीकृष्ण का अवतार लेकर वृंदावन धाम में पधारीं। भगवान्‌ श्री शिवजी ने ब्रज में श्रीराधा के रूप में अवतार ग्रहण किया। यहां इन दोनों ने मिलकर देवदुर्लभ, अलौकिक रास-नृत्य का आयोजन किया।

 भगवान्‌ शिव की 'नटराज' उपाधि यहां भगवान्‌ श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई। पृथ्वी के चराचर प्राणी इस रास के अवलोकन से आनंद-विभोर हो उठे और भगवान्‌ शिव की इच्छा पूरी हुई।

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