अद्दभुत कथा विशेषांक : चिरंजीवी हनुमान जी ने बताया शिवलिंग और तिरुपति की मूर्ति का रहस्य
अद्दभुत कथा विशेषांक :
चिरंजीवी हनुमान जी ने बताया शिवलिंग और तिरुपति की मूर्ति का रहस्य

[नोट : यह अध्याय मोक्ष की तरफ आपका १०० कदम है | यह कदम बहुत महत्वपूर्ण है | जैसे कि सांप सीढ़ी के खेल में होता है , सीढ़ी एक लम्बी छलांग लगवा देती है , उसी तरह यह अध्याय भी एक सीढ़ी प्रदान करता है | कुछ भाग्यशाली आत्माएं इस सीढ़ी को प्राप्त करकें सीधे मोक्ष को प्राप्त कर सकती हैं | जिन आत्माओं को यह सीढ़ी नहीं मिलती है , वे आगे के अध्यायों के माध्यम से कदम दर कदम का सफ़र जारी रखेंगी |]
[अति महत्वपूर्ण : इस अध्याय में ‘लिंग’ शब्द का अर्थ आजकल प्रचलित अर्थ से पूर्णतः भिन्न है | हनुमान जी ने इस शब्द का अर्थ इस अध्याय में समझाया है | अगर फिर भी आपका दिमाग प्रचलित अर्थ में फंसा रहे तो कृपा ‘लिंग’ शब्द को ‘प्रभामंडल’ पढ़ें | हर आत्मा का एक प्रभामंडल होता है जिसे ‘लिंग’ कहते हैं |]
जब बाबा मातंग ने यजमान धनुष्क हेतु अर्पण की रीतियाँ पूरी कर ली तब हनुमान जी बोले – “हे धनुष्क , जिस श्रद्धा के साथ तुमने स्वयं को समर्पित किया है , उससे मैं बहुत खुश हूँ | बताओ , प्रसाद में क्या पाने की इच्छा रखते हो ?”
धनुष्क की इच्छा अन्य मातंगों से भिन्न नहीं थी | वह बोला – “हे प्रभु, मैं उस परमज्ञान को पाने की इच्छा रखता हूँ जो मोक्ष की ओर ले जाता है |”
हनुमान जी ने धनुष्क की ओर रहस्यमय तरीके से देखा | वे ऐसे मुस्काये जैसे उन्होंने धनुष्क के चेहरे पर कुछ पढ़ा हो | और बोले – “हे धनुष्क , जैसा कि तुमने सीखा , यह विश्व तीन चीजो से बना है – (1) आत्माएं जिनका स्वामित्व ब्रह्मा जी के पास है (2) अस्तित्व का द्रव , जिनका स्वामित्व विष्णु जी के पास है (3) काल के धागे , जिनका स्वामित्व शिव जी के पास है |
“अस्तित्व के द्रव के अन्दर सब कुछ है – पहाड़ , नदियाँ , तारे , ग्रह , पदार्थ जो हमारी इन्द्रियों की ज्ञानक्षमता में हैं और पदार्थ जो हमारी इन्द्रियों की ज्ञानक्षमता से बाहर है – अस्तित्व के द्रव के अन्दर सब कुछ है | हे धनुष्क , सोचो और बताओ , अस्तित्व के द्रव के अन्दर जो सब कुछ है , उसमे से तुम्हारी आत्मा ने यह क्षणभंगुर सी मानव देह ही क्यों चुनी है? तुम्हे यह क्यों महसूस होता है कि तुम यह देह हो ? तुम्हे यह महसूस क्यों नहीं होता है कि तुम पूरे पर्वत हो जहाँ हम बैठे हैं | तुम्हे यह महसूस क्यों नहीं होता कि तुम एक झील हो ? तुम्हे यह महसूस क्यों नहीं होता कि तुम एक वृक्ष हो | तुम्हारी आत्मा इस हाड-मांस की देह को ही अपना क्यों मानती है ?” हनुमान जी ने पूछा |
धनुष्क ने कुछ पल सोचा और उत्तर दिया – “हे प्रभु, यह केवल दो चीजों पर निर्भर करता है – (1) कर्म (2) इच्छाएं | मेरी आत्मा द्वारा बटोरी गई इच्छाएं इसी देह द्वारा अच्छे से पूर्ण की जा सकती हैं | इसलिए मेरी आत्मा ने यह देह धारण की है , पर्वत, वृक्ष अथवा नदी की देह नहीं |”
हनुमान जी बोले – “हे मातंगो , धनुष्क ने जो कहा वह ठीक है | किसी भी आत्मा के कर्म-इच्छा ही यह निर्धारित करते हैं कि वह आत्मा कौन सी देह धारण करती है | मैं अब आप लोगों को कुछ दिखाने वाला हूँ |”
हनुमान जी खड़े हो गए , उन्होंने अपनी हथेलियों को आपस में जोड़ा , एक मंत्र पढ़ा और फिर अपनी हथेलियों को धीरे धीरे अलग कर लिया | हनुमंडल में उपस्थित मातंगों ने देखा कि धनुष्क की देह दो भागों में बंट गई | अब वहां पर दो समरूप आकृतियाँ थी | एक हाड मांस की आकृति अर्थात देह | दूसरी प्रकाश की आकृति | वहां पर उपस्थित युवा मातंगों ने यह मान लिया कि वह प्रकाश की आकृति धनुष्क की आत्मा थी |
“आह ! मैंने अंततः देख ही लिया कि आत्मा कैसी दिखती है | यह देह जैसी ही एक आकृति है किन्तु प्रकाश की बनी हुई |” एक युवा मातंग ने टिपण्णी की |

हनुमान जी ने उसको तुरंत ठीक किया – “हे मातंग , यह प्रकाश की आकृति आत्मा नहीं | आत्मा तो प्रकाश का एक बिंदु मात्र होती है | जब उस पर कर्म और इच्छाएं एकत्रित हो जाती है , तब इसके चारों और एक प्रभामंडल विकसित हो जाता है | इस प्रभामंडल की आकृति आत्मा के कर्म-इच्छा पर निर्भर करती है | आत्मा के चारों ओर के इस प्रभामंडल को ‘ज्योति लिंग’ अथवा ‘लिंग’ कहते हैं |
हे मातंगों, मेरे द्वारा प्रदान की गई दिव्य दृष्टि से आप लोग धनुष्क की आत्मा का लिंग (प्रभामंडल) देख पा रहे हैं | जैसा कि आप देख रहे हैं , देह और लिंग दोनों की आकृति समान है | अंतर केवल इतना है कि लिंग कर्म और इच्छाओं का बना है तो देह काल और अस्तित्व-द्रव से बनी है |
लिंग और देह में सम्बन्ध यह है कि ये एक दुसरे को प्रतिबिंबित करते हैं | अगर हम लिंग में कोई परिवर्तन करते हैं तो देह में भी परिवर्तन आता है |
ऋषि भृगु ने इस सिद्धांत के आधार पर एक शास्त्र विकसित किया था – “जब लिंग में कोई परिवर्तन किया जाता है तो देह में भी परिवर्तन आता है |” इस शास्त्र का नाम था लिंग शास्त्र |
[सेतु टिपण्णी : लिंग पुराण और लिंग शास्त्र दोनों अलग अलग हैं |]
मैं आपको इस शास्त्र का मूल सिद्धांत वर्णन करकें समझाता हूँ जिससे कि आपको विश्व के रहस्य जानने में सहायता मिलेगी |”
हनुमान जी धनुष्क की देह के पास आये जो हवा में ऐसे अटकी हुई थी जैसे कि जम गई हो | हनुमान जी ने देह की ओर इशारा करके कहा – “इसके सिर पर काले बाल हैं | मान लीजिये कि हम इसके बालों को स्थायी रूप से लाल करना चाहते हैं | यह करने का भौतिक तरीका होगा कि इसके बालों को एक एक करके निकाला जाए और उनकी जगह एक एक करके लाल बाल लगाए जाएँ | यह बहुत पीड़ादायक प्रक्रिया होगी | ऋषि भृगु के पास ऐसा करने का बहुत आसान तरीका था | अगर आत्मा की देह में परिवर्तन लाना है तो आत्मा के लिंग में परिवर्तन लाओ |”
अब हनुमान जी ने धनुष्क की आत्मा के लिंग की ओर रुख किया | लिंग भी हवा में स्थिर था , देह से कुछ ही कदम दूर | यह प्रकाश का बना एक त्रिआयामी ढांचा था | हनुमान जी बोले – “हमें यह पता लगाना होगा कि लिंग के प्रकाश की कौन सी तरंग बालों के काले रंग के लिए जिम्मेदार है | हमें उस तरंग को निकालकर उसकी जगह ऐसी तरंग लगा देनी है जो लाल रंग के बालों के लिए जिम्मेदार होती है |
हनुमान जी पुनः अपने आसन पर आ गए | वे बोले – “हे मातंगों , मैंने लिंग शास्त्र के उपयोग का एक छोटा सा उदाहरण दिया है | लिंग शास्त्र के सूत्रों से मानव को पक्षी में , पक्षी को पत्थर में बदला जा सकता है |
“ऋषि भृगु द्वारा लिंग की प्रकृति पर शोध तब शुरू हुआ जब उन्होंने भगवान् विष्णु से एक प्रश्न पूछा , “हे प्रभु , जब एक आत्मा मुक्तिसागर से एक इच्छा के साथ उठती है, तो आप उसे नश्वर संसारों में क्यों भेजते हैं ? आप भली भांति जानते हैं कि नश्वर संसार वो अनंत जाल हैं जिसमे एक इच्छा दूसरी इच्छा को जन्म देती है | नश्वर लोकों में एक लम्बा एवं कठिन सफ़र तय करने के पश्चात् आत्मा को अंततः मोक्ष ही प्राप्त करना पड़ता है और चिरशांति के लिए मुक्तिसागर में ही वापिस लौटना पड़ता है | आत्मा को नश्वर लोकों में भेजने की बजाए आप उसे वापिस उसी समय मुक्तिसागर में वापिस क्यों नहीं भेज देते जब वह पहली इच्छा के साथ मुक्तिसागर से उठती है ?”
“भगवान विष्णु मुस्कुराये और बोले – “उधर देखो! एक आत्मा मुक्तिसागर से उठ रही है | वह मुझसे अपनी इच्छापूर्ती के लिए नश्वर संसार का मार्ग पूछेगी | मैं उस आत्मा को आपके साथ भेज दूंगा | मैं उसको बोलूँगा कि आप उसे उसकी इच्छापूर्ति में सहायता करोगे | अगर आप इसे नश्वर संसार के जंजाल से बचा सकते हैं तो बचाइए | उसे जितना जल्दी हो सके मोक्ष दिलाइये |”
“वहां पर उस आत्मा का लिंग (प्रभामंडल) जंगली सूअर का था | वह आत्मा ऋषि भृगु के साथ मानवलोक में आ गई और उसने एक जंगली सूअर की देह धारण कर ली | ऋषि भृगु ने उस आत्मा का नाम रखा ‘वराह’ और उस आत्मा को मोक्ष दिलाने के मिशन पर जुट गए |
[सेतु टिपण्णी : यहाँ पर जिस वराह का जिक्र है वह विष्णु अवतार ‘आदि वराह’ नहीं हैं | लेकिन यह वराह भी कोई साधारण आत्मा नहीं थे | विष्णु जी ने अपना ही एक हिस्सा भृगु ऋषि के साथ भेजा था ]
“ऋषि भृगु किसी मानव को तो ब्रह्मज्ञान देकर मोक्ष दिलाने में समर्थ थे किन्तु विष्णु जी ने उनको एक जंगली सूअर को मोक्ष दिलाने का कार्य सौंपा था | जब वे अपने आश्रम में पहुंचे तो उन्होंने अपने प्रिये शिष्य उद्वेग के साथ इसके बारे में चर्चा की |
“ऋषि भृगु बोले – “हे उद्वेग , सबसे पहले तो हमें वराह को मनुष्य में बदलने का तरीका खोजना होगा | तभी हम मोक्ष के बारे में सोच सकते हैं |”
“बहुत समय बीत गया लेकिन उन्हें कोई उपाय नहीं सुझा | अब दूसरी समस्या यह थी कि वराह बूढा होता जा रहा था | उद्वेग ने भृगु से कहा – “गुरुदेव , हमें पहले वराह को बूढा होने से रोकने का उपाय सोचना चाहिए | हम इसको युवा रहने के योगिक तरीके तो नहीं सीखा सकते , हमें कोई और उपाय खोजना होगा | अगर वराह मर जाता है तो इसकी आत्मा कोई ओर देह धारण कर लेगी और फिर हमें नए सिरे से अपना काम शुरू करना पड़ेगा |”
“वराह को बूढा होने से रोकने के प्रयास में उन्होंने अपना ध्यान उसकी देह से हटाकर उसके लिंग पर लगाया | वे उसके लिंग में वह तरंग ढूँढने में सफल हो गए जो देह के बूढा होने के लिए जिम्मेदार थी | उन्होंने उस तरंग को निकाल दिया और फिर वराह की देह बूढी होनी बंद हो गई |
“बहुत साल बीत गए | वराह के लिंग के साथ उनके प्रयोग जारी रहे | अंततः वे वराह के लिंग में परिवर्तन लाकर उसकी देह को जंगली सूअर से मानव की देह में परिवर्तित करने में सफल हो गए |

“”गुरदेव , अब जबकि हमने वराह को मनुष्य बना दिया है , अब आप उसे ब्रह्मज्ञान देकर मोक्ष की ओर अग्रसर कर सकते हैं |” उद्वेग बोला |
“ऋषि भृगु ने उत्तर दिया – “ब्रह्मा ज्ञान के जरिये मोक्ष पाना इंसानी तरीका है | यह लम्बा और कठिन भी है | मेरा विष्णु जी से प्रश्न यह था कि वे आत्मा को नश्वर संसारों में भेजते ही क्यों हैं? वे उस आत्मा को वही पर मोक्ष प्रदान क्यों नहीं कर देते ? तुरंत मोक्ष प्रदान करने का कोई तो तरीका होगा?”
“उद्वेग ने सुझाव दिया – “गुरुदेव , मोक्ष अर्थात जीवन-मरण के क्रम से छुटकारा , सभी इच्छाओं और कर्मों से छुटकारा | लिंग किसी भी आत्मा के चारों ओर आत्मा के कर्म और इच्छाओं के कारण ही होता है | अगर हम लिंग को नष्ट कर दे तो आत्मा की कर्म व इच्छाएं भी नष्ट हो जायेंगी | तब आत्मा मोक्ष को प्राप्त हो जायेगी | अतः हमें वराह की आत्मा के लिंग को नष्ट करने में अपना ध्यान लगाना चाहिये |”
“बहुत साल बीत गए | उन्होंने तरंग दर तरंग वराह के लिंग को नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन उनके सब प्रयास बेकार गए | प्रकाश की जिन तरंगो से वह लिंग बना था उनका कोई अंत नहीं था | जब वे प्रकाश की किसी तरंग को लिंग से अलग करते , उससे केवल लिंग का आकार बदलता | और उसी के अनुसार देह का आकार बदलता | मानव से गाय ; गाय से वानर , वानर से चिड़िया ; चिड़िया से सर्प आदि आदि | इसका कोई अंत नहीं था |
[सेतु टिपण्णी : कर्म और इच्छा से पूर्णतः निजात पाना अति कठिन है | आत्मा देह बदलती रहती है - एक जन्म से दुसरे जन्म , लेकिन कर्म-इच्छा से छुटकारा नहीं मिलता | इसी को इंद्र जाल कहा जाता है | जैसे ही एक आत्मा नश्वर संसारों में आती है , यह एक ऐसे जाल की भांति है जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है | आत्मा पदार्थ की जो देहें धारण करती रहती है वे सब अस्तित्व के द्रव के अन्दर हैं जिसका प्रबंधन इंद्र के पास है | इसलिए इसको इंद्रजाल कहा जाता है |]
“वे वराह की देह को नष्ट नही कर सके लेकिन इस प्रक्रिया में उन्होंने लिंग के सवभाव के बारे में बहुत कुछ सीखा | उनकी इन्ही खोजों से लिंग शास्त्र का विकास हुआ |
“बहुत साल बाद ऋषि भृगु ने अपने शिष्य से कहा – “हे उद्वेग , लिंग अनंत प्रकाश से बना है | इसकी तरंगों से छेड़छाड़ करके हम इसको एक रूप से दुसरे रूप में तो परिवर्तित कर सकते हैं , इसको नष्ट नहीं कर सकते |”
“उद्वेग बोला – “गुरुदेव, हमारे प्रयास पूर्णतः बेकार नही गए हैं | हमने कम से कम यह खोज तो की कि हम अब किसी भी देह को दुनिया की किसी अन्य देह में बदल सकते हैं |”
“ऋषि भृगु बोले – “उद्वेग , अब हमें देह रूपांतरण के बारे में पूर्ण ज्ञान हो गया है , अब हमें अपना शोध देह स्थानातरण पर करना चाहिए | लिंग में परिवर्तन करके किसी भी देह को एक स्थान से दुसरे स्थान पर स्थानांतरित करना | इस तरह हम शायद इस आत्मा को पुनः मुक्तिसागर में स्थानांतरित करने का उपाय पा ले ! जैसे ही यह आत्मा मुक्तिसागर में पहुंचेगी , यह मोक्ष को प्राप्त हो जायेगी |”
“अब उन्होंने वराह को पुनः मानव देह में बदल दिया और उसको एक स्थान से दुसरे स्थान पर ले जाने के लिए लिंग शास्त्र के तरीके खोजने लगे | वे अपने प्रयोग आश्रम के केन्द्रीय कक्ष में कर रहे थे | वहां से गौशाला कुछ ही दूरी पर थी | उद्वेग ने सुझाव दिया – “गुरुदेव , क्या हम वराह को गौशाला में स्थानांतरित करने का प्रयास करें |”
“उन्होंने लिंग की तरंगो का वह मिश्रण ढूंढ लिया जो किसी भी देह के स्थान के लिए जिम्मेदार था | उन्होने उस मिश्रण में बदलाव लाकर वराह की देह का स्थान बदलने में कामयाबी हासिल कर ली | वराह केन्द्रीय कक्ष से गायब होकर तुरंत गौशाला में प्रकट हो गया |
“उद्वेग की आँखें चमक उठी | वह बोला – “गुरुदेव , यह तो क्रांतिकारी है | अब किसी को अलौकिक शक्तियां प्राप्त करने के लिए योगी बनने की आवश्यकता नहीं है | अब हम पशुओं तथा योगियों का भी रूपांतरण तथा स्थानान्तरण आसानी से कर सकते हैं |”
“अब वराह की देह गौशाला में थी और उसका लिंग ऋषि भृगु और उनके शिष्य के सामने केंद्रीय कक्ष में था | हे मातंगों , आपको यह जानना आवश्यक है कि लिंग देह के साथ यात्रा नहीं करता | देह काल और स्थान के साथ बंधी है , लिंग नहीं | अगर कोई भक्त यहाँ से मीलों दूर भी है , मैं उसका लिंग यहाँ पर देख सकता हूँ | मुझे उनकी देह के पास जाने की आवश्यकता नहीं है |
“जब वराह आश्रम की गौशाला में था , उद्वेग ने उसके लिंग पर कुछ और प्रयोग करना चाहा | वह बोला – “गुरुदेव , क्या हम वराह के लिंग में एक तरंग का रोपण करके उसके मस्तिष्क में कोई विचार रोपित कर सकते हैं ?”
“ऋषि भृगु ने कोई उत्तर नहीं दिया | वे इस सोच में लीन थे कि वराह को वापिस मुक्तिसागर कैसे स्थानान्तरित किया जाए |
“उद्वेग ने वराह के मस्तिष्क में एक विचार रोपित कर दिया | वह विचार था – ‘वराह , गाय का दूध निकालो |”
“जब वराह ने गाय का दूध निकाल लिया , उद्वेग ने वराह को वापिस केन्द्रीय कक्ष में स्थानांतरित कर लिया | वह उत्साह से बोला – “गुरुदेव , देखिये , मैंने गौशाला में जाए बिना गाय का दूध निकाल लिया |”
“”लेकिन तुमने वराह को दूध निकालने के लिए भेजा | इसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं है | अगर कर सकते हो , तो किसी को गौशाला में भेजे बिना गाय का दूध निकाल के दिखाओ |” ऋषि भृगु बोले |
“उसके लिए तो हमें गाय के लिंग पर भी काम करने की आवश्यकता होगी |” उद्वेग बोल – “गाय के लिंग में जो तरंग दूध का कारक है , हम उस तरंग को उसके लिंग से निकालकर उसको डाल सकते हैं ... हैं ... हैं ...”
“”बाल्टी में ? तरंग को बाल्टी में कैसे डालोगे ? बाल्टी की तो कोई आत्मा नहीं होती और कोई लिंग नहीं होता |” ऋषि भृगु ने उद्वेग की बुद्धिमता का इम्तिहान लिया |
“”नहीं गुरुदेव , जब मैं बाल्टी को देखता हूँ , छूता हूँ , अथवा पकड़ता हूँ तो बाल्टी मेरे लिंग का हिस्सा बन जाती है | उसी तरह हम बाल्टी को उद्वेग के लिंग का हिस्सा बनाकर उस तरंग को उद्वेग के लिंग में डाल सकते हैं | इस तरह गाय के थनों में से दूध सीधे बाल्टी में आ जाएगा | बहुत आसान है |” उद्वेग बोला |
“हे मातंगों , उन्होंने कई वर्षों तक इस तरह के प्रयोग किये और अपनी खोजों को लिंग शास्त्र में संकलित किया | एक दिन उन्होंने लिंग में तरंगो का वह मिश्रण खोजा जो आत्मा की ब्रह्मलोक से दूरी के लिए जिम्मेदार था | उन्होंने उस मिश्रण में बदलाव करके वराह को सफलतापूर्वक ब्रह्मलोक भेज दिया | इस प्रक्रिया में वराह का लिंग पूर्णतः गायब हो गया | अब उसकी आत्मा प्रकाश का एक बिंदु मात्र थी | उसके चारों ओर कोई लिंग नहीं था |
“उद्वेग आश्चर्यपूर्वक बोला – “गुरुदेव , हमने यह कर दिया है | हमने वराह की आत्मा के लिंग को नष्ट कर दिया | अब वराह की आत्मा से कोई कर्म-इच्छा जुड़ा नहीं है | यह मात्र एक प्रकाश का बिंदु है | इसने मोक्ष प्राप्त कर लिया है |”
“लेकिन ऋषि भृगु प्रसन्न नहीं थे | उन्होंने उत्तर दिया – “हे उद्वेग , जब एक आत्मा कर्म और इच्छाओं से मुक्त हो जाती है तो वह ब्रह्मलोक में पहुँच जाती है | ऐसी आत्मा सोचती है कि उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया , लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है | कर्म और इच्छाओं के नाश के पश्चात् भी ‘मैं की सुध’ रह जाती है | मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह सुध कि ‘मैं एक आत्मा हूँ’ नष्ट की जानी आवश्यक है | आत्मा को अपनी पहचान नष्ट करके पूर्ण के साथ एक हो जाना आवश्यक है | इसे मुक्तिसागर के साथ एक हो जाना आवश्यक है | यह आखिरी कदम है | दुर्भाग्य से बहुत सारी आत्माएं अपनी मोक्ष यात्रा उसी समय समाप्त कर लेती हैं जब वे कर्म और इच्छा से छुटकारा पा लेती हैं | वे इस भ्रम में रहती हैं कि उन्हें मोक्ष मिल गया | वे ब्रह्मलोक में फंसी रहती हैं | ब्रह्मलोक में ऐसी बहुत सारी आत्माएं हैं |
“उद्वेग ने पूछा – “गुरुदेव , ब्रह्मलोक मुक्तिसागर के बिलकुल ऊपर ही तो है | यह बहुत समीप है | तो फिर ये आत्माएं ब्रह्मलोक से उतारकर नीचे मुक्तिसागर में क्यों नहीं आ जाती?”
“”भ्रम उद्वेग, भ्रम !” ऋषि भृगु ने उत्तर दिया – “उन्हें यह कड़ा भ्रम है कि उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है | वे सोचती है कि मुक्तिसागर में समाई आत्माएं मुर्ख है जो उन्होंने अपनी पहचान नष्ट कर ली ओर ‘पूर्ण’ के साथ एक हो गई | उनके भ्रम का यह बल इतना शक्तिशाली है कि वे मोक्ष प्राप्त की हुई आत्माओं को भी मुक्तिसागर से बाहर निकाल देती है |”
[सेतु टिपण्णी : यहाँ पर उस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है जो बहुत सारे भक्तों ने चौथे अध्याय के पठन के पश्चात् पुछा था – “मोक्ष की प्राप्ति के बाद आत्माएं मुक्तिसागर से वापिस बाहर क्यों निकलती हैं?”]
“”अब हम क्या करें गुरुदेव ? अगर हम कुछ नहीं करेंगे तो वराह कि आत्मा हमेशा के लिए ब्रह्मलोक में फंसी रहेगी | हम उसे कभी मोक्ष नहीं दे पायेगे | और मुझे भय है कि हम अब कुछ नहीं कर सकते | वराह का लिंग नष्ट हो चुका है | अब वह ब्रह्मलोक में प्रकाश का एक बिंदु मात्र है | हम उसे यहाँ वापिस कैसे लायें?” उद्वेग ने पूछा |
“ऋषि भृगु ने उत्तर दिया – “वह पूर्णतः हमारी पहुँच से बाहर अभी नहीं गया है | वह हमारे ‘कर्म और इच्छा” में अभी भी अस्तित्व में है | हमारी इच्छा है कि हम उसको ब्रह्मलोक से मुक्त करें | हमारी यह इच्छा ऐसी रस्सी का काम करेगी जो उसे ब्रह्मलोक से बाहर निकालकर वापिस मरण लोक में खींच लाएगी |”
“ऋषि भृगु अपनी योग शक्तियों का प्रयोग करके वराह को पुनः मानवलोक में ले आये | अब वराह पुनः मानव रूप में था और उसका लिंग पुनः प्रयोग के लिए उपलब्ध था |
“”तो अब हमें दो चीजो को नष्ट करना है – (1) वराह की आत्मा का लिंग (2) वराह की आत्मा की ‘मैं की सुध’ | तभी वराह को मोक्ष प्राप्त होगा |” उद्वेग बोला – “गुरुदेव , मेरे पास एक विचार है | लिंग में ऐसी तरंगे भी होती हैं जो नकारात्मक कर्म-इच्छा को दर्शाती है और ऐसी तरंगे भी जो सकारात्मक कर्म-इच्छा को दर्शाती हैं | अगर हम लिंग में नकारात्मक और सकारात्मक तरंगों की मात्रा समान कर दें तो वे एक दुसरे को काट देंगी | तब शायद कोई सम्भावना बने कि वराह का लिंग और उसकी ‘मैं की सुध’ दोनों एक साथ समाप्त हो जाएँ और वराह मोक्ष प्राप्त कर ले |”
“उन्होंने इस विचार पर कई महीनों तक कार्य किया | अंतत वे लिंग में सकारात्मक और नकारात्मक तरंगों को बराबर करने में सफल हो गए | लेकिन उसका परिणाम वैसा नहीं निकला जैसा उन्होंने सोचा था | गायब होने की बजाय वराह के लिंग ने अंडाकार रूप धारण कर लिया और उसकी देह मानवलोक से गायब हो गई |
“ऋषि भृगु बोले – “वराह शिवलोक पहुँच गया है | जब कोई आत्मा संसार की सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों से उदासीन हो जाती है तब उसका लिंग अंडाकार रूप धारण कर लेता है और वह आत्मा शिवलोक में पहुँच जाती है | ऐसी बहुत से आत्माएं हैं जो शिवलोक में फंसी हुई हैं | वे सोचती हैं कि उन्होंने सर्वोच्च मुकाम पा लिया है , और यह कि उससे आगे कुछ नहीं है | उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने इच्छा-कर्म को नष्ट कर लिया है | लेकिन वास्तव में होता सिर्फ इतना है कि उनके सकारात्मक और नकारात्मक इच्छा-कर्म समान होकर संतुलित हो जाते हैं जिससे शून्य का भ्रम पैदा होता है | इसके अलावा उनकी ‘मैं की सुध’ भी वैसी की वैसी रहती है | इसलिए उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती |”
“”गुरुदेव , वराह अब भी हमारी कर्म-इच्छा का भाग है | क्या आप उसे अपनी योग शक्तियों का प्रयोग करके शिवलोक से वापिस ला सकते हैं?” उद्वेग ने पूछा |
““नहीं , वह काफी नहीं होगा |” ऋषि भृगु ने उत्तर दिया – “शिवलोक की आत्माएं भगवान् शिव का अनुकरण करती हैं | तुम्हे भगवान् शिव की पूजा करनी चहिये ताकि वे यहाँ प्रकट हों | जब वे यहाँ होंगे तो मैं अपनी योग शक्ति का प्रयोग करके वराह को भी यहाँ बुला लूँगा |”
“हे मातंग भक्तो , भगवान् शिव संसार की सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों के प्रति उदासीन हैं | इसलिए उनका लिंग (प्रभामंडल) अंडाकार है | अगर वे नश्वर संसारों में आये तो वे अंडाकार देह धारण करें | लेकिन वे नश्वर संसार में पूर्णतः कभी नहीं आते | उनका आधा भाग हमेशा शिवलोक में रहता है और आधा भाग नश्वर संसार में भक्तों को दर्शन देता है | इसलिए नश्वर संसार में वे हमेशा अर्ध-अंडाकार देह धारण करते हैं | दूसरी ओर, ब्रह्मा जी का कोई लिंग नहीं है | इसलिए वे नश्वर संसार में कोई देह धारण नहीं करते | विष्णु जी का लिंग संसार की आवश्यकताओं के अनुसार आकार बदलता है | इसलिए वे नश्वर संसार में विभिन्न देह धारण करते हैं |
“ऋषि भृगु की योजना के अनुसार उद्वेग ने भगवान् शिव की पूजा की | भगवान् शिव वहां एक अर्ध-अंडाकार पत्थर के रूप में प्रकट हुए | उसी समय ऋषि भृगु ने अपनी योग शक्तियों का प्रयोग करके वराह को पुनः मानवलोक में बुला लिया |
“वराह ऋषि भृगु के आश्रम में अब जंगली सूअर की देह में था | उद्वेग बोला – “गुरुदेव हम फिर से वही आ गए जहाँ से हमने शुरू किया था |”
“ऋषि भृगु ने पुनः वराह के लिंग में परिवर्तन किये | उन्होंने उसके लिंग से वे सभी तरंगे निकाल दी जो नकारात्मक कर्म-इच्छा को प्रदर्शित कर रही थी | अब उसके लिंग में केवल वे तरंगे थी जो सकारात्मक कर्म-इच्छा प्रदर्शित कर रही थी | लिंग ने एक बहुत सुन्दर आकृति धारण कर ली और वह विष्णुलोक पहुँच गया |
“उद्वेग चिल्लाया – “गुरुदेव , हमने वराह को विष्णुलोक भेज दिया है | अर्थात अब वह मुक्तिसागर के बिलकुल सतह पर है | अब वह मुक्तिसागर में प्रवेश करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है |”
“नहीं उद्वेग ! विष्णुलोक तो बहुत सी आत्माएं पहुँचती हैं | उन्हें लगता है कि वे सर्वोच्च मुकाम पर पहुँच गई हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है | ऐसी आत्माओं की कर्म-इच्छा केवल सकारात्मक होती है और उसके साथ साथ उनमे ‘मैं की सुध’ भी होती है | वे मोक्ष प्राप्त नहीं करती | वे विष्णुलोक में भगवान् विष्णु की सेवा में रहती हैं | जब भी किसी नश्वर संसार में अच्छी आत्मा की आवश्यकता होती है तो भगवान् विष्णु इनमे से किसी एक आत्मा को अच्छाई पुनर्स्थापन के लिए भेजते हैं |” ऋषि भृगु ने वर्णन किया |
“ऋषि भृगु ने अब मान लिया था कि वे भगवान् विष्णु द्वारा दिया गया कार्य पूरा नहीं कर सकते | वे भगवान् विष्णु के पास गए और बोले – “हे प्रभु , मैं वराह को मोक्ष नहीं दे सका | मुझे अब समझ आ गया कि बाहरी प्रयासों से आत्मा केवल एक देह से दूसरी देह , अथवा एक लोक से दुसरे लोक में भेजी जा सकती है |मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मा को स्वयं यह समझना आवश्यक है कि वह एक अंतहीन जाल में फंसी है | आत्मा को अपनी पहचान मिटाकर पूर्ण के साथ एक होना आवश्यक है | तभी वह मोक्ष को प्राप्त कर सकती है | अब मैं यह समझ गया हूँ कि जब कोई आत्मा मुक्तिसागर से निकलती है तो आपके पास उस आत्मा को मरणलोकों में भेजने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है |”
भगवान विष्णु मुस्कुराये और बोले – “श्रीवत्स ... श्रीवत्स .... श्रीवत्स.”
“जब ऋषि भृगु ने भगवान् विष्णु के हृदय में देखा तो उन्हें एक निशान चमकता नजर आया | यह निशान था अंतहीन जाल का निशान | यह निशान श्रीवत्स कहलाता है | यह निशान आत्माओं को यह याद दिलाने के लिए है कि वे एक अंतहीन जाल में फंसी हुई है | और यह भी कि मुक्ति के लिए उन्हें अपनी ‘मैं की सुध’ को नष्ट करना होगा |
“ऋषि भृगु ने अपने हाथ जोड़कर पुछा – “प्रभु , अब वराह का क्या होगा ? क्या आप उसे पुनः मरण लोक भेजेंगे? क्या वह मरणलोक में जीवन-मरण के चक्र से गुजरेगा?”
“वराह कौन?” भगवान् विष्णु मुस्कुराए और बोले – “महर्षि भृगु, वह मेरा ही एक रूप था | वह वराह था जब वह आपके साथ गया था | अब वह अपनी वास्तविक रूप में है | मैंने उसे आपके साथ ‘लिंग शास्त्र’ की रचना के लिए भेजा था | मैं उसे मानवलोक में पुनः भेजूंगा , कलियुग में एक उचित समय पर | वह कलियुग में वही रहेगा जब तक कि मैं कल्कि अवतार नहीं लेता |”
“ऋषि भृगु बोले – “हे प्रभु , कलियुग में जीवों का अधिकतम जीवनकाल 200 साल होगा | क्या वे (वराह) अंत तक रहने के लिए देह बदलते रहेंगे?
“भगवान विष्णु ने उत्तर दिया – “महर्षि , वह पत्थर की देह धारण करेगा और वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाएगा | वह आत्माओं को कलियुग के अन्धकार भरे समय में मोक्ष के राह पर रहने में सहायता करेगा |”
“हे मातंगो , भगवान् वेंकटेश इस समय मानवलोक में हैं | उनकी इस कथा को सुनने के बाद आप भी उनके लिंग का भाग बन गए हैं | अब वे आपको मोक्ष की इच्छा पूर्ण करने में सहायता करेंगे |” हनुमान जी ने अपना प्रवचन पूर्ण किया |
धनुष्क को इस ज्ञान के रूप में एक अद्भुत प्रसाद मिल गया था | वह हनुमान जी के सामने कृतज्ञतापूर्वक झुक गया | चरण पूजा का तीसरा चरण समाप्त हो गया |

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